योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
प्रस्तावना
अन्त में हम कुछ शब्द अपनी पुस्तक के मूल्य के संबंध में प्रकट कर देना चाहते हैं, क्योंकि हमारे बहुत-से मित्रों को यह शिकायत रहती है कि हम अपनी साधारण पुस्तकों को बहुत महँगी करके बेचते हैं। प्रथम तो हम अपने मित्रों को यह बताना चाहते हैं कि हमारी सब पुस्तकों का मूल्य अन्य भाषा अर्थात बंगाली, अंग्रेजी या उर्दू में छपी पुस्तकों से कम है। दूसरे यह कि हमारी अच्छी से अच्छी पुस्तक में अभी तक हमको हानि रही है। पूरी लागत भी अभी वसूल नहीं हो पाई। यद्यपि हमारा विश्वास है कि हमारी पुस्तक को हजारों मनुष्यों ने पढ़ा है तथापि अब तक एक भी संस्करण का समाप्त न होना भी इनके प्रति सर्वसाधारण की कदर को जाहिर करता है। अतः ऐसी अवस्था में यह आशा रखना उचित नहीं है कि समय और मस्तिष्क के परिश्रम के अतिरिक्त हम पुस्तकों के छपाने के लिए अपने पास से धन भी खर्च करें। इस विषय में पंजाब की हिन्दू जनता को बंगाल की जनता या मुसलमान महाशयों से कुछ शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में मैं यह तुच्छ भेंट अपनी जाति की सेवा में समर्पित करता हूँ। लाहौर -लाजपतराय 6-11-1900 |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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