विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
तीसरा अध्याय
किशोरलीला
चतुर्थ प्रकरण
मथुरा छोड़ना
राजा मुचुकुन्दकृत स्तुति
जरासन्ध खिन्नचित्त होकर वन की ओर भाग गया किन्तु अपने मित्र शिशुपालादि के समझाने पर फिर युद्ध के लिए मथुरा में आया और इस बार भी अपनी सेना का संहार कराकर लौट आया, इस प्रकार वह सत्रह बार भगवान् से हारकर भागा। भगवान की लीला अति अद्भुत है। वे बड़े ही कौतुकी हैं। उन्होंने अठारहवीं बार यह ठानी कि इस समय जरासन्ध के सामने से भाग जाना चाहिए। उस समय ऐसे ही समान जुट गये जिनके कारण मानो श्रीकृष्णचंद्र असमंजस में पड़ गये। एक ओर तो कालयवन नामक[1]वीर तीन करोड़ म्लेच्छों के साथ भगवान से लड़ने के लिए मथुरा के समीप आ गया और दूसरी ओर से जरासन्ध के आने की भी सूचना मिली। ऐसी स्थिति में यदि भगवान एक ओर युद्ध करते हैं तो दूसरा आक्रमणकारी मथुरा को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। इसलिए उन्होंने विश्वकर्मा द्वारा समुद्र के बीच में द्वार का नामक एक नगर बनवाया। इस नगर की शोभा निराली थी। प्रत्येक घर का द्वार राजमार्ग की ओर खुला था। तथा पीछे की ओर गलियाँ तथा दोनों बगलों में आँगन थे। जहाँ-तहाँ नगर में और घरों में देवमंदिर थे। भगवान ने अपनी माया से सब मथुरावासियों को द्वारका में पहुँचा दिया और आप कालयवन से लड़ने के लिए मथुरा में आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कालयवन एक बड़ा वीर था। उसको यह घमण्ड हुआ कि पृथ्वी में मुझसे बढ़कर और कोई योद्धा नहीं है। एक समय उसने नारद जी से सुना कि यादव मेरे समकक्ष हैं। अतः भगवान अपनी सेना लेकर मथुरा पर चढ़ाई कर दी। नारद जी ने भगवान् के रूपादि का भी वर्णन कालयवन से कर दिया था।
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