गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 42

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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4. जिसमें साधक अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों का संयम कर लेता है, उनको अपने-अपने विषयों से हटा लेता है, वह ‘संयमरूप यज्ञ’ है।
5. जिसमें साधक राग-द्वेषरहित इन्द्रियों से विषयों का सेवन करता है, वह ‘विषय-हवनरूप यज्ञ’ है।
6. प्राणों, इन्द्रियों और मन की क्रियाओं को रोककर बुद्धि की जागृति रहते हुए निर्विकल्प हो जाना ‘समाधिरूप यज्ञ’ है।
7. लोकोपकार के लिये अपना धन खर्च करना ‘द्रव्ययज्ञ’ है।
8. अपने धर्म का पालन करने में जो कठिनता आती है, उसको प्रसन्नतापूर्वक सहना ‘तपोयज्ञ’ है।
9. कार्य की सिद्धि और असिद्धि में तथा फल की प्राप्ति और अप्राप्ति में सम रहना ‘योगयज्ञ’ है।
10. सत्-शास्त्रों का पठन-पाठन तथा नाम-जप आदि करना ‘स्याध्यायरूप ज्ञानयज्ञ’ है।
11. पूरक, कुम्भक और रेचकपूर्वक [1] प्राणायाम करना ‘प्राणायामरूप यज्ञ’ है।
12. नियमित आहार करते हुए प्राणों को अपने-अपने स्थानों में ही रोक देना ‘स्तम्भवृत्ति प्राणायामरूप यज्ञ’ है।
ये सम्पूर्ण यज्ञ केवल कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये ही हैं- ऐसा जानकर इन यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले साधक के सम्पूर्ण पापों का नाश हो जातो है।।24-30।।

पापों का नाश होनेपर क्या होता है भगवन्?
हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! उन यज्ञ करने वालों को अमृतस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो यज्ञ करता ही नहीं, उसके लिये यह मनुष्यलोक भी लाभदायक नहीं होता, फिर परलोक कैसे लाभदायक हो सकता है?।।31।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
अध्याय 1 7
अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
अध्याय 5 50
अध्याय 6 60
अध्याय 7 67
अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
अध्याय 12 100
अध्याय 13 109
अध्याय 14 114
अध्याय 15 120
अध्याय 16 129
अध्याय 17 135
अध्याय 18 153
  1. श्वास को भीतर लेना पूरक, श्वास को भीतर रोकना कुम्भक और श्वास को बाहर निकालना रेचक कहलाता है।

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