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ऐसे पुरुष की स्थिति क्या होती है?
वह कर्म तथा कर्मफल की आसक्ति और उनके आश्रय से रहित होता है तथा सदा तृप्त रहता है। इसलिये वह सब कुछ करता हुआ भी वास्तव में कुछ भी नहीं करता।।20।।
अगर कोई साधक निवृत्ति-परायण हो, तो?
शरीर और अन्तःकरण को वश में करने वाला, सब प्रकार के संग्रह का त्याग करने वाला और संसार की आशा से रहित साधक केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी बँधता नहीं।।21।।
अगर कोई साधक प्रवृत्ति-परायण हो, तो?
वह भी जैसी परिस्थिति आती है, उसी में सन्तुष्ट रहता है, ईर्ष्या और द्वन्द्वों से रहित होता है तथा सिद्धि-असिद्धि में सम रहता हुआ कर्म करके भी नहीं बँधता। इतना ही नहीं, जो आसक्तिरहित और स्वाधीन है तथा जिसका निश्चय केवल परमात्मा को प्राप्त करने का ही है, ऐसे केवल यज्ञ के लिये कर्म करने वाले साधक के सम्पूर्ण कर्म विलीन (अकर्म) हो जाते हैं।।22-23।।
वह यज्ञ कितने प्रकार का होता है भगवन्?
- जिसमें सम्पूर्ण करण, उपकरण, सामग्री, क्रिया, कर्ता आदि ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं, वह ‘ब्रह्मयज्ञ’ है।
- जिसमें सम्पूर्ण पदार्थ, क्रिया आदि मेरे अर्पण हो जाती है, वह ‘भगवदर्पणरूप यज्ञ’ है।
- जिसमें साधक अपने-आपको ब्रह्म में एक कर देता है, वह ‘अभिन्नतारूप यज्ञ’ है।
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