गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 44

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

चौथा अध्याय

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इस ज्ञान की क्या और भी कोई महिमा है?
हाँ अगर तू सब पापियों से भी अत्यन्त पापी है तो भी तू ज्ञानरूपी नौका के द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पापों से भलीभाँति तर जायगा।।36।।

जैसे नौका से समुद्र तरने पर समुद्र तो रहता ही है, ऐसे ही पापों से तरने पर पाप तो रहते ही होंगे?
नहीं अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि लकड़ियों को सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों (पापों) को भस्म कर देती है। अतः इस मनुष्यलोक में ज्ञान के समान पवित्र कोई नहीं है। उसी ज्ञान को कर्मयोग के द्वारा सिद्ध हुआ मनुष्य अवश्य ही स्वयं अपने-आपमें पा लेता है।।37-38।।

जो ज्ञान कर्मयोग से सिद्ध हुए मनुष्य को अपने-आप प्राप्त हो जाता है, वह ज्ञान अन्य साधक को किस प्रकार प्राप्त होता है?
इन्द्रियों को वश में करने वाले, साधनपरायण और श्रद्धावान् साधक को वह ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान को प्राप्त होकर वह बहुत जल्दी परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है।।39।।

इस ज्ञान की प्राप्ति में बाधा क्या है?
जो खुद तो जानता नहीं और दूसरों पर श्रद्धा करता नहीं, दूसरों की बात मानता नहीं तथा जिसके भीतर में संशय पड़ा रहता है, ऐसे मनुश्य का पतन हो जाता है, ऐसे संशय वाले मनुष्य के लिये न यह लोक सुखदायी होता है और न परलोक ही।।40।।

संशय के नष्ट होने पर क्या होता है?
हे धनन्जय! जिसने समता के द्वारा सम्पूर्ण कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया है और ज्ञान (कर्मतत्त्व के ज्ञान) के द्वारा सम्पूर्ण संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे स्वरूप-परायण मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते। अतः हे भरतवंशी अर्जुन! तू हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न होने वाले संशय का ज्ञानरूप तलवार से छेदन करके समता में स्थित हो जा और युद्ध (कर्तव्य-पालन) के लिये खड़ा हो जा।।41-42।।

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अध्याय पृष्ठ संख्या
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