गीता माधुर्य -रामसुखदास पृ. 87

गीता माधुर्य -स्वामी रामसुखदास

ग्यारहवाँ अध्याय

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अर्जुन बोले- हे भगवन्! केवल मेरे पर कृपा करने के लिये ही आपने जो परम गोपनीय आध्यात्मिक बात (सबके मूल में मैं हूँ) कही है, उससे मेरा मोह चला गया है। हे कमलनयन! मैंने आपसे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय की बातें सुनीं तथा आपका अविनाशी माहात्म्य भी विस्तार से सुना।।1-2।।

अब तुम और क्या चाहते हो?
हे पुरुषोत्तम! आप अपने को जैसा कहते हैं, बात वास्तव में ठीक ऐसी ही है। अब हे परमेश्वर! मैं आपका वह परम ऐश्वर रूप देखना चाहता हूँ, जिसके एक अंश में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड व्याप्त हैं। परन्तु हे प्रभो! मेरे द्वारा आपका वह परम ऐश्वर रूप देखा जा सकता है- ऐसा अगर आप मानते हैं तो हे योगेश्वर! आप अपने उस अविनाशी स्वरूप को मुझे दिखा दीजिये न।।3-4।।

भगवान् बोले- हे पार्थ! तू मेरे एक रूप को ही क्यों, मेरे सैकड़ों-हजारों रूपों को देख, जो कि दिव्य हैं, अनेक प्रकार के हैं, अनेक रंगों के हैं और अनेक तरह की आकृतियों के हैं।।5।।

और क्या देखूँ भगवन्?
हे भारत! तू आदित्यों को, वसुओं को, रुद्रों को, अश्विनीकुमारों को तथा मरुतों को भी देख। जिन रूपों को तूने पहले कभी नहीं देखा है, ऐसे बहुत-से आश्चर्यजनक रूपों को भी तू देख।।6।।

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गीता माधुर्य -रामसुखदास
अध्याय पृष्ठ संख्या
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अध्याय 2 26
अध्याय 3 36
अध्याय 4 44
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अध्याय 8 73
अध्याय 9 80
अध्याय 10 86
अध्याय 11 96
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अध्याय 18 153

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