गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द10.बुद्धियोग
“कर्म”, भगवान् कहते हैं कि, “बुद्धियोग की अपेक्षा बहुत नीचे दर्जे की चीज है, इसलिये बुद्धि की शरण लेने की इच्छा करो; वे लोग दरिद्र और पामर हैं जो कर्मफल को अपने विचार और अपनी कर्मण्यताओं का विषय बनाते हैं ।” [1] हमें सांख्यों की उस मनोवैज्ञानिक क्रमव्यवस्था को याद रखना चाहिये जिसे गीता ने स्वीकार किया है। इस क्रमव्यवस्था में एक ओर पुरुष है जो स्थिर, अकर्ता, अक्षय, एक और अविकार्य है; दूसरी ओर प्रकृति है जो सचेतन पुरुष के बिना स्वयं जड़ है, जो कन्नी है, पर इसका यह गुण पुरुष की चेतना के सात्रिध्य से, उसके संपर्क में आने से ही है। कहा जा सकता है कि आरंभ में वह पुरुष के साथ एक नहीं हो जाती, बल्कि अनिश्चित रूप से उसके संपर्क में आती है, जिस रूप में वह त्रिगुणत्मिका है, विवर्तन और निवर्तन की योग्यता रखती है। पुरुष और प्रकृति के परस्पर-संपर्क से ही आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ और क्रीड़ा होती है, जो हमारी सत्ता का अनुभव है। हमारा जो अंतरंग पहले वह विकसित होता है, क्योंकि प्रथम कारण पुरुष-चैतन्य है, और जड़ प्रकृति केवल द्वितीय कारण है और पहले पर आश्रित है। तथापि हमारी अंतरंगता के जो कारण हैं उनकी उत्पत्ति प्रकृति से है; पुरुष से नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.49
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