गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द1. दो प्रकृतियां[1]
गीता के इस द्वितीय कांड की निरूपण-शैली अबतक की शैली की अपेक्षा अधिक संक्षिप्त और सरल है। प्रथम छः अध्यायों में ऐसे स्पष्ट लक्षण नहीं दिये गये हैं जिनसे आधरभूत सत्य की पहचान हो; जहाँ जो कठिनाइयां पेश आयी हैं वहाँ उनका चलते-चलाते समाधन कर दिया गया है; विवेचन का क्रम कुछ कठिन है और कितनी ही उलझनों और पुनरावृत्तियों में से होकर चलता रहा है; ऐसा बहुत कुछ है जो कथन में समाया तो है पर जिसका अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो पाया है। अब यहाँ से क्षेत्र कुछ अधिक साफ है, विवेचन अधक संक्षिप्त और अपने अभिप्राय के प्रति स्पष्ट है। परंतु इस संक्षेप के कारण ही हमें बराबर सावधानी के साथ आगे बढ़ना होगा जिससे कहीं कोई भूल न हो जाये, कहीं वास्तविक अभिप्राय छूट न जाये। कारण, यहाँ हम आतंरिक और आध्यात्मिक अनुभूति की सुरक्षित भूमि पर स्थिर होकर नहीं चल रहे हैं, बल्कि यहाँ हमें आध्यात्मिक और प्रायः विश्वतीत सत्य के बौद्धिक प्रतिपादन को देखना-समझना है। दार्शनिक विषय के प्रतिपादन में यह कठिनाई और अनिश्चितता सदा रहती है कि बात तो कहनी होती है निःसीम की, पर उसे बुद्धि की पकड़ में आने के लिये सीमित करके कहना होता है; यह एक ऐसा प्रयास है जो करना तो पड़ता है पर जो कभी पूर्ण रूप से संतोषजनक नहीं होता, यह एकदम आखिरी या पूर्ण नहीं हो सकता। परम आध्यात्मिक सत्य को जीवन में उतारा जा सकता है, उसका साक्षात्कार पाया जा सकता है, पर उसका वर्णन केवल अंशतः ही हो सकता है। उपनिषदों की पद्धति और भाषा इससे अधिक गभीर है, उसमें प्रतीक और रूपक का खुलकर उपयोग किया गया है, जो कुछ कहा गया है वह अंतर्ज्ञान का ही स्वच्छंद प्रवाह है जिसमें बौद्धिक वाणी की कठोर निश्चितता का बंधन टूट गया है और शब्दों के गर्भित अर्थों में से संकेत का एक अपार तरंग-प्रवाह निकल आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्याय 07, श्लोक 1-14
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