गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य[1]
प्राचीन आध्यात्मिक शिक्षा में यह कभी नहीं माना गया कि अमरता केवल शरीर की मृत्यु के बाद व्यक्ति की सत्ता का बचे रहना ही है: इस अर्थ में तो सभी जीव अमर हैं और केवल उनके रूप ही नष्ट होते हैं। जो जीव मोक्ष नहीं प्राप्त कर पाते वे पुनरावर्ती युग-युगांतों में जीवन-यापन करते हैं; सब भूत व्यक्ति लोकों के प्रलय के समय ब्रह्म के अंदर निवर्तित या निगूढ़ रूप में अवस्थित रहते हैं और नये युगचक्र के आविर्भाव के समय पुनः उत्पन्न होते हैं। प्रलय, अर्थात् एक युगचक्र का अंत, सत्ता के वैश्व रूप का तथा उस चक्र के आवर्तों में घूमने वाले सभी व्यष्टि-रूपों का अस्थायी विघटन होता है, परंतु वह केवल एक अल्पकालीन विराम, एक शांत अंतराल होता है जिसके बाद नव-सर्जन, पुनर्घटन तथा पुननिर्माण का प्रवाह उमड़ पड़ता है जिसमें वे रूप पुनः प्रकट होते तथा अपनी प्रगति के लिये पुनः वेग प्राप्त करते हैं। हमारी दैहिक मृत्यु भी एक प्रकार का प्रलय है,-गीता अभी हाल में ही इस शब्द का प्रयोग इस मृत्यु के अर्थ में करेगी, ‘‘देह धारण करने वाला जीव प्रलय को प्राप्त होता है ”, अर्थात् वह जड़ प्रकृति के उस रूप के विघटन को प्राप्त होता है जिसके साथ उसने अपने अज्ञान के कारण अपनी सत्ता को तदाकार कर रखा था और जो अब पांच भौतिक तत्त्वों में विलीन हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता, अध्याय 14
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज