गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
12.मार्ग और भक्त
एक ऐसा ज्ञान जो भगवान् के साथ हमारे एकत्व को अपने अंदर समाविष्ट करता है और भगवान् की अनुभूति के द्वारा सब पदार्थों तथा जीवों के साथ सचेतन एकत्व प्राप्त करता है, एक ऐसी इच्छाशक्ति जो अहंकार से रहित हो तथा कर्मों के गुप्त स्वामी के आदेश के द्वारा तथा उनके यंत्र के रूप में ही कार्य करे, एक ऐसा दिव्य प्रेम जिसकी एकमात्र अभीप्सा भूत मात्र के रम आत्मा के साथ घनिष्ठ सान्न्ध्यि प्राप्त करने की ही हो, परात्पर एवं विश्वगत आत्मा और प्रकृति के साथ तथा समस्त प्राणियों के साथ एक ऐसी आभ्यंतरिक और समग्र-बोधात्मक एकता जो इन तीन पूर्णताप्राप्त शक्तियों की एकता के द्वारा संसिद्ध और उपलब्ध हुई हो-यही है वह आधार जो मुक्त आत्मा को उसके कर्मों के लिये प्रदान किया गया है। क्योंकि, इसी आधार पर से उसकी अंतःस्थ आत्मा कारणात्मक प्रकृति को सुरक्षापूर्वक कार्य करने दे सकती है; वह परम के समस्त कारण से ऊपर उठ जाता है, अहंभाव और उसकी सीमाओं से मुक्त हो जाता है, पाप, अशुभ और उसके फल के समस्त भय से बच जाता है, बाह्य प्रकृति तथा सीमित कर्म के उस बंधन से, जो कि अज्ञान की ग्रंथि है ऊंचा उठ जाता है। वह अब और अस्पष्ट आलोक या अंधकार में कार्य न करके ज्योति की शक्ति में कार्य कर सकता है, तथा एक दिव्य अनुमति उसके आचार-व्यवहार के प्रत्येक पग को सहारा देती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज