गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 17.देव और असुर[1]
दूसरी ओर, इतने ही स्पष्ट रूप में, इतने ही बलपूर्ण शब्दों में यह भी कहा गया है कि भूतल पर प्रत्येक प्राकृत सत्ता में तीनों गुण एक-दूसरे के साथ अविच्छेद्य रूप से युक्त रहकर क्रिया कर रहे हैं और यह भी कहा गया है कि किसी मनुष्य या प्राणी या शक्ति की समस्त क्रिया केवल इन तीन गुणों की एक-दूसरे पर होने वाली क्रिया ही है, वह एक ऐसी क्रिया है जिसमें कोई एक या दूसरा गुण प्रबल होता है तथा शेष दोनों उसकी क्रिया एवं परिणमों को थोड़ा-बहुत प्रभावित करते हैं, गुणा गुणेष वर्तन्ते। तब भला और कोई सक्रिय एवं गतिशील प्रकृति या किसी और प्रकार के कर्म हो ही कैसे सकते हैं? कर्म करने का अर्थ प्रकृति के गुणों के अधीन होना है; उसकी क्रिया की इन अवस्थाओं के ऊपर उठने का अर्थ आत्मा में नीरव होकर स्थित रहना है। ईश्वर, पुरुषोत्तम, जो प्रकृति के सब कर्मों के स्वामी है तथा अपने दिव्य संकल्प के द्वारा उन सबका परिचालन, निर्देशन और निर्धारण करते हैं, निःसदेह गुणों की इस यांत्रिक क्रिया से परे है; वे प्रकृति के गुणों से प्रभावित या आबद्ध नहीं होते। परंतु फिर भी ऐसा जान पड़ता है कि वे सदा इन्हीं के द्वारा कार्य करते हैं, सदा स्वभाव की शक्ति से तथा गुणों के मनोवैज्ञानिक यंत्र के द्वारा गठन करते हैं। ये तीन प्रकृति के मूलभूत गुण हैं, यहाँ हमारे अंदर जो कार्यवाहिका प्रकृति-शक्ति गठित हो रही है उसकी ये आवश्यक क्रियाएं हैं, और स्वयं जीव भी इस प्रकृति के अंदर भगवान का एक अंशमात्र है। अतएव यदि मुक्त व्यक्ति मुक्ति के बाद भी कर्म करता रहता है,,कर्म-प्रपंच में विचरण करता है, तो वह प्रकृति के अंदर रहता हुआ तथा उसके गुणों के द्वारा सीमाबद्ध एवं उनकी प्रतिक्रियाओं के अधीन होकर ही कर्म कर सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता अध्याय 16
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