गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द11.कर्म और यज्ञ
बुद्धि का इन्द्रियों से, विषय-वासनाओं से तथा मानव-कर्म से हटकर उस परम में, उस एकमेवाद्वितीय अकर्ता पुरुष में, उस अचल निराकार ब्रह्म में लगना ही ज्ञान का सनातन बीज है। यहाँ कर्म के लिये कोई स्थान नहीं, क्योंकि कर्म अज्ञान के है; कर्म ज्ञान से सर्वथा विपरीत है; कर्म का बीज है कामना और उसका फल है बंधन-यही कट्टर दार्शनिक मत है और श्रीकृष्ण भी इसे स्वीकार करते हुए मालूम होते हैं, जब वे कहते हैं कि कर्म बुद्धियोग के सामने बहुत ही नीचा है और फिर भी जोर देकर यह कहा जाता है कि योग के अंग के रूप में कर्म करना होगा; इस तरह इस शिक्षा में एक मूलगत परस्पर-विरोध दीख पड़ता है। इतना ही नहीं; क्योंकि ज्ञान की अवस्था में भी कुछ काल तक किसी प्रकार का कोई कर्म बना रह सकता, ऐसा कर्म जो कम- से-कम हो, अत्यंत निर्दोष हो; पर यहाँ जो कर्म बताया जा रहा है वह तो ज्ञान के,सौम्यता के और स्वांत सुखी जीव की अचल शांति के सर्वथा विरुद्ध है- यह कर्म तो एक भयानक, यहाँ तक कि राक्षसी कर्म है, खून-खराबे से भरा हुआ संघर्ष है एक निर्दय संग्राम है, एक दानवी हत्याकांड है। फिर भी इसी कर्म का यहाँ विधान किया जा रहा है और अंत:स्थ शान्ति और निष्काम समता तथा ब्राह्मी स्थिति की शिक्षा से इसका समर्थन किया जा रहा है! यह ऐसा परस्पर-विरोध है जिसका अभी मेल नहीं मिला है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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