गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 15.तीन पुरुष[1]
इस संसार में एक आत्मसत्ता कार्य कर रही है, जो इन अनगिनत दृश्यमान वस्तुओं में एक ही है। वह प्रकृति के असंख्य क्षर भावों में जन्म और कर्म की विकासकत्रीं है, जीवन को गति देने वाली शक्ति है, अंतर्यामी और संयोजक चेतना है; देश और काल में यह जितनी गति हो रही है इसकी घटक वस्तु-सत्ता वही है; वह स्वयं ही यह देश, काल और घटना है। वही लोक-लोकांतरों में विद्यमान यह जीव-समूह है, वही सब देवता, मनुष्य प्राणी, पदार्थ, शक्तियां, गुण, परिमाण, विभूतियां और उपस्थितियां है। वही प्रकृति है जो आत्मा की एक शक्ति है; वही सब विषय है जो उसके नाम-रूपात्मक तथा भावरूप दृग्विषय हैं; वही सर्वभूत है जो इस अद्वितीय स्वयं-सत जिसे हम अपने सामने प्रत्यक्ष रूप में कार्य करते देखते हैं वह यह सनातन तथा इसकी चिन्मय शक्ति नहीं है, बल्कि वह तो प्रकृति है जो अपनी क्रियाओं के अंध आवेग के वश अपने कार्य के अंदर विद्यमान आत्म-सत्ता से अभिज्ञ नहीं है। उसका कार्य यंत्रवत क्रिया करने वाले कुछ एक मूल गुणों तथा शक्ति-तत्त्वों की अस्त-व्यस्त, अज्ञानमयी एवं सीमाबद्ध क्रीड़ा है और उनके स्थिर या परिवर्तनशील परिणामों की श्रृंखला है। और उसके कार्य-व्यापार में जो कोई भी जीव बाह्य स्तर पर प्रकट होता है वह स्वयं भी अज्ञानमय, पीड़ित, तथा इस निम्नतर प्रकृति की अपूर्ण एवं असंतोषजनक क्रीड़ा से आबद्ध दिखायी देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता, अध्याय 15
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