गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
11.विश्वपुरुष–दर्शन[1]
दोहरा रूप
जबकि इस दर्शन के विकराल रूप का प्रभाव उसपर छाया हुआ था तब भी भगवन् का कथन समाप्त होने के बाद अर्जुन ने जो प्रथम उद्गार प्रकट किये वे मृत्यु की इस मुखाकृति तथा इस संहार के पीछे विद्यमान एक महत्तर उद्धारक तथा आश्वासक सद्वस्तु की एक ओजस्वी व्याख्या करते हैं वह कहता है, “ हे हृषीकेश, संसार आपके नाम से जो हर्षित होता है और उसमें आनंद लेता है वह समुचित तथा उपयुक्त ही है। राक्षस आपसे त्रस्त होकर इधर-उधर भाग रहे हैं और सिद्धसंघ भक्तिपूर्वक आपको नमस्कार करते हैं। हे महात्मन, वे आपकी क्यों न पूजा करें? क्योंकि आप तो आदि स्रष्टा तथा कर्मों के आदि कर्ता हैं और जगदुत्पादक ब्रह्या से भी अधिक महान हैं, हे अनंत, हे देवेश, हे जगत्रिवास, आप अक्षर हैं, सत तथा असत् जो कुछ भी हैं वह आप ही हैं और जो परतम हैं वह भी आप हैं। आप पुराण पुरुष, आदि तथा मूल देव हैं और इस विश्व के परम विश्राम -स्थल है; आप ही ज्ञाता और श्रेय हैं, परमधाम हैं; हे अनंतरूप, यह विश्व आपने ही विस्तारित किया है। आप यम, वायु, अग्नि, सोम, वरुण, प्रजापति, प्राणिमात्र के पिता हैं और आप ही प्रपितामह भी हैं। आपको सहस्र बार नमस्कार हो, पुनः नमस्कार, पुनः पुनः नमस्कार, आगे और पीछे से तथा सब ओर से नमस्कार हो, क्योंकि आप ही प्रत्येक वस्तु हैं तथा जो कुछ भी हैं वह सब आप ही हैं। अनंत वीर्य और अमित कर्मशक्तिवाले आप ‘सब’ के अंदर व्याप्त हैं और आप ही ‘सब’ हैं।[2] परंतु ये परमोच्च विश्व-पुरुष यहाँ उसके सामने मानव आकार में, मर्त्य शरीर में, भागवत मनुष्य, देहधरी भगवान् एवं अवतार के रूप में निवास करते आये हैं और अबतक वह उन्हें जान पाया है। उसने केवल उनकी मानवता को ही देखा है और भगवान् के साथ केवल मानव प्राणी की तरह ही व्यवहार किया है। वह पार्थिव आवरण को भेदकर उन परमेश्वर तक नहीं पहुँचा है जिनका मानवता आधार और प्रतीक थी, और अब वह उन परमात्मा से प्रार्थना करता है कि मेरे और शून्य प्रमाद तथा उपेक्षापूर्ण अज्ञान के लिये मुझे क्षमा कीजिये। ‘‘आपको अपना केवल मानवीय सखा तथा साथी समझकर, ‘हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा ‘इस प्रकार संबोधित करते हुए, आपकी इस महिमा को न जानते हुए मैंने जोश में आकर, बिना सोचे-विचारे, उपेक्षापूर्ण प्रमाद या प्रणय के कारण जो कुछ कहा है उस सबके लिये तथा शयन, आसन या भोजन के समय, अकेले या आपकी उपस्थिति में मैंने हंसी-मजाक में आपका जो निरादर किया है उसके लिये, हे अप्रमेय, मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। आप इस संपूर्ण चराचर जगत के पिता हैं ; आप पूज्य हैं तथा सत्कार के परम पावन पात्र हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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