गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 294

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग


गीता अब परम और समग्र रहस्य को, उस एकमात्र ध्येय और सत्य को जिसमें पूर्णता-सिद्धि तथ मुक्ति के साधक को रहना सीखना होगा, तथा उसके सब आध्यात्मिक अंगों और उनके समस्त व्यापारियों की पूर्णता- सिद्धि के एकमात्र विधान को खोलकर प्रकट करना चाहती है। यह परम रहस्य है उन परात्पर परमेश्वर का स्वरूपरहस्य जो समग्र हैं और सर्वत्र हैं, पर जगत् तथा उसके नाना नामरूपों से इतने महत्तर और इतर हैं कि यहाँ की किसी वस्तु में वे नहीं समा सकते, कोई वस्तु उन्हें वास्तविक रूप में प्रकट नहीं कर सकती और न कोई भाषा ही, जो दिशा और काल से परिमित पदार्थों के रूपों और उनके परस्पर संबंधों से ही निर्मित हुआ करती है, उनके अचिंतनीय स्वरूप को किसी प्रकार लक्षित करा सकती है। फलतः हमारी पूर्णता-सिद्धि का विधान है अपनी संपूर्ण प्रकृति के द्वारा उनका यजन-पूजन जो उसके मूल और उसके स्वामी हैं और उन्हीं को इसका आत्मसमर्पण। हमारा एकमात्र परम मार्ग यही है कि इस जगत् में हमारी जो कुछ सत्ता है, केवल उसका कोई यह या वह अंश नहीं, बल्कि सब प्रकार से वह उन सनातन पुरुष की ओर ले जाने वाला मात्र एक कर्म बना दी जाये। ऐश्वर योग की शक्ति और रहस्यमयी कृति के द्वारा हम लोग उनकी अनिर्वचनीय गुह्यातिगुह्या स्थिति से निकल कर प्राकृत पदार्थों की इस बद्ध दशा में आ गये हैं। अब उसी ऐश्वर योग की उल्टी गति से हमें इस बाह्य प्रकृति की सीमाओं को पार करना होगा और उस महत्तर चैतन्य को फिर से प्राप्त होना होगा जिसके प्राप्त होने से हम परमेश्वर और परम सनातन तत्त्व में रह सकते हैं।

परमेश्वर की परा सत्ता अभिव्यक्ति के परे हैं; उनकी यथार्थ सनातनी मूर्ति जड़ शरीर में प्रकट नहीं होती, वह ‘‘अचिनत्यरूप” है। हम जो कुछ देखते हैं वह केवल एक स्वरचित रूप है, भगवान् का सनातन स्वरूप नहीं। जगत् से भिन्न कोई और या कुछ और भी है, जो अकथ, अचिंत्य, अनंत भगवतत्त्व है जो अनंतविषयक हमारी व्यापक-से व्यापक या सूक्ष्मतिसूक्ष्म भावनाओं से प्राप्त हो सकने वाले किसी भी आभास के सर्वथा परे है। यह नानाविध पदार्थों का बना जिसे हम जगत् नाम से पुकारते हैं, अनेकविध गतियों का एक महान् जोड़ है जिसकी हम कोई स्थायी वस्तु, कोई ध्रुव पद, कोई समतल आधारभूमि और विश्व के नाभि-केन्द्र के ढूंढ़ने का व्यर्थ ही प्रयास किया करते हैं। उसे इसी महतो महीयान् अनंत ने अपनी अनिर्वचनीय विश्वातीत रहस्यमयी शक्ति से बुन रखा है, रूप दिया है और फैलाया है। इसकी मूल भित्ति है। एक आत्मनिरूपणक्रिया जो स्वयं अव्यक्त और अचिंत्य है। यह संभूति सा समूह जो प्रतिक्षण बदलता और चलता रहता है, ये सब जीव, ये सारे चराचर प्राणी, पदार्थ, सांस लेने और जीने वाले रूप अपने अंदर व्यष्टि रूप से या समष्टि रूप से भी उन भगवान् को नहीं समा सकते। अर्थात् वे उनमें नहीं हैं; बल्कि भूत ही उनके अंदर हैं, भूत ही उनके अंदर जीते, चलते और उन्हीं से अपने स्वरूप का सत्य ग्रहण करते हैं; भूत उनकी संभूति हैं और वे उनकी आत्मसत्ता हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।9.4

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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