गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
5.भवदीय सत्य और मार्ग
परमेश्वर की परा सत्ता अभिव्यक्ति के परे हैं; उनकी यथार्थ सनातनी मूर्ति जड़ शरीर में प्रकट नहीं होती, वह ‘‘अचिनत्यरूप” है। हम जो कुछ देखते हैं वह केवल एक स्वरचित रूप है, भगवान् का सनातन स्वरूप नहीं। जगत् से भिन्न कोई और या कुछ और भी है, जो अकथ, अचिंत्य, अनंत भगवतत्त्व है जो अनंतविषयक हमारी व्यापक-से व्यापक या सूक्ष्मतिसूक्ष्म भावनाओं से प्राप्त हो सकने वाले किसी भी आभास के सर्वथा परे है। यह नानाविध पदार्थों का बना जिसे हम जगत् नाम से पुकारते हैं, अनेकविध गतियों का एक महान् जोड़ है जिसकी हम कोई स्थायी वस्तु, कोई ध्रुव पद, कोई समतल आधारभूमि और विश्व के नाभि-केन्द्र के ढूंढ़ने का व्यर्थ ही प्रयास किया करते हैं। उसे इसी महतो महीयान् अनंत ने अपनी अनिर्वचनीय विश्वातीत रहस्यमयी शक्ति से बुन रखा है, रूप दिया है और फैलाया है। इसकी मूल भित्ति है। एक आत्मनिरूपणक्रिया जो स्वयं अव्यक्त और अचिंत्य है। यह संभूति सा समूह जो प्रतिक्षण बदलता और चलता रहता है, ये सब जीव, ये सारे चराचर प्राणी, पदार्थ, सांस लेने और जीने वाले रूप अपने अंदर व्यष्टि रूप से या समष्टि रूप से भी उन भगवान् को नहीं समा सकते। अर्थात् वे उनमें नहीं हैं; बल्कि भूत ही उनके अंदर हैं, भूत ही उनके अंदर जीते, चलते और उन्हीं से अपने स्वरूप का सत्य ग्रहण करते हैं; भूत उनकी संभूति हैं और वे उनकी आत्मसत्ता हैं।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।9.4
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