गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द10.बुद्धियोग
चूंकि मनुष्य अज्ञानपूर्वक और अशुद्ध बुद्धि के साथ कर्म करता है, और ऐसी हालत में इन कार्मों के संबंध में उसका संकल्प भी अशुद्ध ही होता है,, इसलिये वह कर्मबंधन में पड़ता है या बद्ध- सा जान पड़ता है ; नहीं तो मुक्त आत्मा के लिये तो कर्म बंधन का कारण है ही नहीं। इस अशुद्ध बुद्धि के कारण ही मनुष्य को आशा, भय, क्रोध और शोक तथा क्षणिक सुखी होता है ; अन्यथा पूर्ण शांति और स्वतंता के साथ कर्म किये जा सकते हैं। इसलिये सबसे पहले अर्जुन को बुद्धियोग ही बताया गया है। शुद्ध बुद्धि और फलतः शुद्ध संकल्प के साथ उस एक परमात्मा में स्थिर होकर, सबमें उस एक आत्मा को जानते हुए तथा उसकी सम शांति में से कार्य करते हुए और उपरितल के मनोमय पुरुष की हजारों प्रेरणाओं के वश इधर-उधर भटके बिना कर्म करना ही बुद्धियोग है। गीता कहती है कि मनुष्य की बुद्धि दो प्रकार की है। एक बुद्धि एकाग्र, संतुलित, एक, समरस और केवल परम सत्य में ही संलग्न है: एकत्व उसकी विशिष्टता है और एकाग्र स्थिरता उसका प्राण। दूसरी बुद्धि में कोई स्थिर संकल्प नहीं, कोई एक निश्चय नहीं, उसमें अनेक शाखा-पल्लवों से युक्त असंख्य विचार हैं, वह जीवन और परिस्थिति से उठने वाली इच्छाओं के पीछे इधर-उधर भटका करती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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