गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द24.कर्मयोग का सारतत्त्व
उसे अनुभव करने के लिये तुझे अभी बहुत कुछ करना है और तुझे इसके लिये अत्यंत विशाल आधार-क्षेत्र दे दिया गया है, आगे जैसे-जैसे कठिनाइयां उत्पन्न होंगी वे आप ही हल होती जायेंगी या में उन्हें तेरे लिये हल कर दूंगा। अभी तो मैंने जो कुछ कहा है इसीको अपने जीवन में ले आ; इसी भाव में स्थित होकर कर्म कर।” वास्तव में इसमें बहुत-सी ऐसी बातें हैं जिन्हें आगे चलकर डाले गये प्रकाश की सहायता के बिना ठीक तरह नहीं समझा जा सकता। प्रथम षट्क में ही उपस्थित होने वाली कुछ शंकाओं का समाधान करने के लिये तथा संभावित भ्रमों को दूर करने के लिये, स्वयं मुझे भी बहुत-सी बातें पहले ही कह देनी पड़ी हैं, उदाहरणार्थ, पुरुषोत्तम-तत्त्व की भावना को पहले ही बार-बार कहना पड़ा है, क्योंकि इसके बिना आत्मा और कर्म और कर्म के अधीश्वर भगवान् के बारे में जो कुछ अस्पष्टता है वह दूर नहीं हो सकती। गीता ने इन बातों को जान-बूझकर ही प्रथम षट्क में विशद इसलिये नहीं किया है कि जो बातें मानव-शिष्य की वर्तमान बुद्धि के लिये बहुत बड़ी हैं उन्हें उसकी अपरिपक्व दशा में पहले ही कह देना उसकी प्राथमिक साधना की दृढता को विचलित कर सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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