गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 16.आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता
गीता मानसशास्त्र के उस ज्ञान को आधार बनाकर चली थी जो उस समय के विचारकों के लिये सुपरिचित था, और अपनी विचार- श्रृंखला में युक्ति के उन क्रमों को संक्षिप्त करना, बहुत-सी बातों को बिना सिद्ध किये मान लेना तथा उन अनेक बातों को बिना व्यक्त किये छोड़ देना उसके लिये भली-भाँति संभव था जिन्हें आज पूरे बल के साथ स्पष्ट करना तथा सुनिश्चित रूप में अपने सामने रखना हमारे लिये आवश्यक है। गीता की शिक्षा आरंभ से ही हमारे जागितिक कर्म के लिये एक नया स्त्रोत एवं नया स्वतर प्रस्तुत करने की ओर अर्गसर होती है; उसका आरंभ-बिंदु यही था और उसके उपसंहार का मूल प्रेरक भी यही है। वास्तव में उसका प्राथमिक उद्देश्य मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित करना नहीं बल्कि यह दिखलाना था कि आत्मा के मोक्ष-प्रयत्न के साथ कर्मों की संगति कैसे बैठती है तथा जब एक बार आध्यात्मिक स्वातंत्र्य प्राप्त हो जाता है तो स्वयं उसके साथ अविछिन्न जागतिक कर्म, मुक्तस्थ कर्म का मेल कैसे सधता है। प्रसंगवश, आध्यात्मिक मुक्ति और सिद्धि प्राप्त करने के लिये एक समन्वयात्मक योग या मनोवैज्ञानकि पद्धति का विकास किया जा चुका है और कुछ एक दार्शनिक सिद्धांत तथा हमारी सत्ता एवं प्रकृति के कई एक सत्य-विशेष, जिन पर इस योग की प्रामाणिकता अवलंबित है, प्रतिपादित किये जा चुके हैं। परंतु मूल लक्ष्य, मूल कठिनाई एवं समस्या शुरू से अब तक बराबर बनी हुई है। वह यह है कि अर्जुन, जो वचारों और भावों की प्रबल क्रांति के कारण कर्म के प्रचलित, स्वाभाविक एवं बौद्धिक आधारों तथा प्रतिमानों से व्युत हो चुका है, कर्मो का नया एवं संतोषजनक आध्यात्मिक मानदंड कैसे प्राप्त करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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