गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म, भक्ति और ज्ञान
आत्मतत्त्व से व्यष्टि पुरुष का भगवान के साथ अभेद है। भागवत प्रकृति के कर्मों में वह भगवान् से अभिन्न है, तथापि व्यावहारिक भेद है और प्रकृतिस्थ भगवान् और विश्व-प्रकृति के परे स्थित भगवान् के साथ उसके बहुत से गहरे संबंध हैं। प्रकृति के निम्न दृश्यों प्रपंचों में यह व्यष्टि जीव एक प्रकार के अज्ञान और अहंकार-प्रयुक्त पार्थक्य के कारण एकमेव भगवान् से सर्वथा अलग दीख पड़ता है और ऐसा मालूम होता है कि वह इस पृथकात्मिका चेतना के अंदर रहता हुआ अपने अहंकारिक सुख और जगत् में अपने व्यष्टिगत जीवन की तथा जगत् में रहने वाले अन्य प्राणियों के मन-बुद्धि-प्राणों के साथ अपने बाह्य संबंधों की ही बातें सोचता, चाहता, करता और भोगना भगवान के विचार, संकल्प, कर्म और प्रकृतिभोग का ही एक प्रतिबिम्ब मात्र होता है-यह प्रतिबिम्ब अवश्य ही जब तक वह अज्ञान में है, अहंभावप्रयुक्त और उलटा होता है। व्यष्टि पुरुष के मूल में जो सत्तत्त्व है उसे पीछे फिरकर पुनः प्राप्त कर लेना ही उसकी मुक्ति का सीधा उपाय है, उसके लिये अज्ञान की दासता से निकलेने का यही सबसे चौड़ा और सबसे नजदीक दरवाजा है। है तो वह आत्मा ही, वह जीव जो बुद्धि और विचारशक्ति से युक्त है, जिसमें संकल्प और कर्म करने की शक्ति है, जिसमें भावना, वेदना और जीवन का आनंद पाने की कामना है, ये सब शक्तियां उसमें हैं और इसलिये इन्हीं सब शक्तियों को भगवान् की ओर फेर देने से मनुष्य का अपने परम सत्य को पुनः प्राप्त होना पूर्णतया संभव हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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