गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द10.बुद्धियोग
मन, जो एक अचेतन शक्ति है, प्रकृति के भेदों को बहिरंग क्रिया और प्रतिक्रिया के द्वारा ग्रहण करता और आकर्षण के द्वारा उनसे संलग्न होता है, इन्द्रियानुभव और कामना बनता है जो बुद्धि और संकल्प के ही दो असंस्कृत अवयव या विकार हैं,-यही मन संवेदन-शक्ति, भावावेग-शक्ति और इच्छा-शक्ति बनता है, इच्छा शक्ति से यहाँ अभिपेत है निम्न कोटि की इच्छा, आशा, कामनामय आवेग, प्राण का आवेग, और ये सबके संकल्प- शक्ति के ही विकार हैं। इन्द्रियां इस मन का उपकरण बनती है, जिनमें पांच ज्ञानेर्न्दिया और पांच कार्मेन्द्रियां, जो अंतरंग जगत् और बहिरंग जगत् के बीच मध्यस्थति का काम करती हैं; बाकी सब हमारी चेतना के विषय, इन्द्रियों के विषय है। स्थूल जगत् के विकास का जो क्रम हम लेाग देखते हैं उससे यह क्रम विपरीत प्रतीत होता है। परंतु यदि हम यह स्मरण रखें कि स्वयं बुद्धि भी अपने-आपमें जड़ प्रकृति की एक जड़ क्रिया है और परमाणु में भी कोई जड़ संकल्प और बोध, पार्थक्य और निश्चय करने वाली गुणक्रिया होती है, यदि हम यह देखें कि पौधों में भी, जीवन के इन अवचेतन रूपों में भी, संवेदन, भावावेग, स्मृति और आवेगों के असंस्कृत अचेतन उपादान मौजूद हैं और फिर यह देखें कि प्रकृति की ये शक्तियां ही किस प्रकार आगे चलकर पशु और मनुष्य की विकासोन्मुख चेतना में अंतःकरण के रूप धारण करती हैं, तो हमें यह पता लगेगा कि आधुनिक विज्ञान ने जड़ प्रकृति के निरीक्षण द्वारा जो कुछ तथ्य प्राप्त किया है, उसके साथ सांख्य प्रणाली का मेल मिल जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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