उत्तंक का गुरुपुत्री के साथ विवाह

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 56 में उत्तंक का गुरुपुत्री के साथ विवाह का वर्णन हुआ है।[1]

उत्तंक एवं गुरु का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उन महर्षि ने अपने सहस्रों शिष्यों को पढ़ाकर घर जाने की आज्ञा दे दी, परंतु उत्तंक पर अधिक प्रेेम होने के कारण वे उन्हें घर जोने की आज्ञा नहीं देना चाहते थे। तात! क्रमश: उन महामुनि उत्तंक को वृद्धावस्था प्राप्त हुई। किंतु वे गुरुवल्सल महर्षि यह नहीं जान सके कि मेरा बुढ़ापा आ गया। राजेन्द्र! एक दिन उत्तंक मुनि लकड़ियाँ लाने के लिये वन मे गये और वहाँ से काठ का बहुत बड़ा बोझ उठा लाये। शत्रुदमन नरेश! बोझ भारी होने के कारण वे बहुत थक गये। उनका शरीर लकड़ियों के भार से दब गया था। वे भूख से पीड़ित हो रहे थे। जब आश्रम पर आकर उस बोझ को जमीन पर गिराने लगे, उस समय चाँदी के तर की भाँति सफेद रंग की उनकी जटा लकड़ी में चिपक गयी थी, जो उन लकड़ियों के साथ ही जमीन पर गिर पड़ी। भारत! भार से तो वे पिस ही गये थे, भूख ने भी उन्हें व्याकुल कर दिया था। अत: अपनी उस अवस्था को देखकर वे उस समय आर्त स्वर से रोने लगे। तब कमल दर के समान प्रफुल्ल मुख वाली विशाल लोचना परम सुन्दरी धर्मज्ञ गुरुपुत्री ने पिता की आज्ञा पाकर विनीत भाव से सिर झुकाया वहाँ आयी और अपने हाथों में उसने मुनि के आँसू ग्रहण कर लिये। उन अश्रुबिन्दुओं से उसके दोनों हाथ जल गये और आँसुओं सहित पृथ्वी से जा लगे। परंतु पृथ्वी भी उन गिरते हुए अश्रुबिन्दुओं के धारण करने में असमर्थ हो गयी। फिर गौतम ने प्रसन्नचित्त होकर विप्रवर उत्तंक से पूछा- ‘बेटा! आज तुम्हारा मन शोक से व्याकुल क्यों हो रहा है? मैं इसका यथार्थ कारण सुनना चाहता हूँ। ब्रह्मर्षे! तुम नि:संकोच होकर सारी बातें बताओ’।

उत्तंक ने कहा- गुरुदेव! मेरा मन सदा आप में लगा रहा। आप ही का प्रिय करने की इच्छा से मैं निरन्तर आपकी सेवा में संलग्न रहा, मेरा सम्पूर्ण अनुराग आप ही में रहा है और आप ही की भक्ति में तत्पर रहकर मैंने न तो लौकिक सुख को जाना औरन मुझे आये हुए इस बुढ़ापा का ही पता चला। मुझे यहाँ रहते हुए सौ वर्ष बीत गये तो भी आपने मुझे घर जाने की आज्ञा नहीं दी।[1] द्विजरेष्ठ! मेरे बाद सैंकड़ों और हजारों शिष्य आपकी सेवा में आये और अध्ययन पूरा करके आपकी आज्ञा लेकर चले गये।[2] गौतम ने कहा- विप्रवर! तुम्हारी गुरुशुश्रुषा से तुम्हारे ऊपर मेरा बड़ा प्रेम हो गया था। इसीलिये इतना अधिक समय बीत गया तो भी मेरे ध्यान में यह बात नही आयी। भृगुनन्दन! यदि आज तुम्हारे मन में यहाँ से जाने की इच्छा हुई है तो मेरी आज्ञा स्वीकार करो और शीघ्र ही यहाँ से अपने घर को चले जाओ। उत्तंक ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! प्रभो! मैं आपको गुरुदक्षिणा में क्या दूँ? यह बताइये। उसे आपको अर्पित करके आज्ञा लेकर घर को जाऊँ। गौतम ने कहा- ब्रह्मन! सत्पुरष कहते हैं कि गुरु जानों को संतुष्ट करना ही उनके लिये सबसे उत्तम दक्षिणा है। तुमने जो सेवा की है, उससे मैं बहुत संतुष्ट हूँ, इसमें संशय नहीं है।[3]

उत्तंक का गुरुपुत्री के साथ विवाह का वर्णन

भृकुकुल भूषण! इस तरह तुम कुझे पूर्ण संतुष्ट जानो। यदि आज तुम सोलह वर्ष के तरुण हो जाओ तो मैं तुम्हें पत्नी रूप से अपनी कुमारी कन्या अर्पित कर दूँगा, क्योंकि इसके सिवा दूसरी कोई स्त्री तुम्हारे तेज को नहीं सह सकती। तब उत्तंक ने तपोबल से तरुण होकर उस यशस्विनी गुरु पुत्री का पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात् गुरु की आज्ञा पाकर वे गुरु पत्नी से बोले। ‘माता जी! मुझे आज्ञा दीजिये, मैं गुरु दक्षिणा में आपको क्या दूँ? अपना धन और प्राण देकर भी मैं आपका प्रिय एवं हित करना चाहता हूँ। ‘इस लोक में जो अत्यन्त दुर्लभ, अद्भुत एवं महान रत्न हो, उसे भी मैं तपस्या के बल से ला सकता हूँ, इसमें संशय नहीं है’।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 56 श्लोक 1-16
  2. कवेल मैं ही यहाँ पड़ा हुआ हूँ
  3. 3.0 3.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 56 श्लोक 17-35

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