- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 78 में दुशला के अनुरोध से अर्जुन और सैन्धवों के युद्ध की समाप्ति का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
दु:शला का आगमन
समस्त सैन्धव वीरों को कष्ट पाते जान धृतराष्ट्र की पुत्री दु:शला अपने बेटे सुरथ के वीर बालक को जो उसका पौत्र था, साथ ले रथ पर सवार हो रणभूमि में पाण्डुकुमार अर्जुन के पास आयी। उसके आने का उद्देश्य यह था कि सब योद्धा युद्ध छोड़कर शान्त हो जाय। वह अर्जुन के पास आकर आर्त स्वर से फूट–फूटकर रोने लगी। शक्तिशाली अर्जुन ने भी उसे सामने देख अपना धनुष नीचे डाल दिया। धनुष त्याग कर कुन्तीकुमार ने विधिपूर्वक बहिन का सत्कार किया और पूछा– बहिन! बताओ, मैं तुम्हारा कौन सा कार्य करूँ? तब दु:शला ने उत्तर दिया- ‘भैया! भरतश्रेष्ठ! यह तुम्हारे भानजे सुरथ का औरस पुत्र है। पुरुष प्रवर पार्थ! इसकी ओर देखो, यह तुम्हें प्रणाम करता है। राजन! दु:शला के ऐसा कहने पर अर्जुन ने उस बालक के पिता के विषय में जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा –‘बहिन! सुरथ कहाँ है?’ तब दु:शला बोली- ‘भैया! इस बालक का पिता वीर सुरथ पितृशोक से संतप्त और विषा से पीड़ित हो जिस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हुआ है, वह मुझसे सुनो। ‘निष्पाप अर्जुन! मेरे पुत्र सुरथ ने पहले से सुन रखा था कि अर्जुन के हाथ से ही मेरे पिता की मृत्यु हुई है। इसके बाद जब उसके कानों में यह समाचार पड़ा कि तुम घोड़े के पीछे–पीछे युद्ध के लिये यहाँ तक आ पहुँचे हो तो वह पिता की मृत्यु के दु:ख से आतुर हो अपने प्राणों का परित्याग कर बैठा है। ‘अनघ! अर्जुन आये’ इन शब्दों के साथ तुम्हारा नाम मात्र सुनकर ही मेरा बेटा विषाद से पीड़ित हो पृथ्वी पर गिरा और मर गया। प्रभो! उसको ऐसी अवस्था में पड़ा हुआ देख उसके पुत्र को साथ ले मैं शरण खोजती हुई आज तुम्हारे पास आयी हूँ। ऐसा कहकर धृतराष्ट्र– पुत्री दु:शला दीन होकर आर्त स्वर से विलाप करने लगी। उसकी दीन दशा देखकर अर्जुन भी दीन भाव से अपना मुँह नीचे किये खड़े रहे। उस समय दु:शला उनसे फिर बोली- ‘भैया! तुम कुरुकुल में श्रेष्ठ और धर्म को जानने वाले हो, अत: दया करो। अपनी इस दुखिया बहिन की ओर देखो और भानजे के बेटे पर भी कृपादृष्टि करो। मन्दबुद्धि दुर्योधन और जयद्रथ को भूलकर हमें अपनाओं। जैसे अभिमन्यु से शत्रुवीरों का संहार करने वाले परीक्षित का जन्म हुआ है, उसी प्रकार सुरथ से यह मेरा महाबाहु पौत्र उत्पन्न हुआ है।[1]
अर्जुन और सैन्धवों के युद्ध की समाप्ति
पुरुषसिंह! मैं इसी को लेकर समस्त योद्धाओं को शान्त करने के लिये आज तुम्हारे पास आयी हूँ। तुम मेरी यह बात सुनो। महाबाहो! यह उस मन्दबुद्धि जयद्रथ का पौत्र तुम्हारी शरण में आया है। अत: इस बालक पर तुम्हें कृपा करनी चाहिये। शत्रुदमन महाबाहु धनंजय! यह तुम्हारे चरणों में सिर रखकर तुम्हें प्रसन्न करके तुमसे शान्ति के लिये याचना करता है। अब तुम शान्त हो जाओ। यह अबोध बालक है, कुछ नहीं जानता है। इसके भाई–बन्धु नष्ट हो चुके हैं। अत: धर्मज्ञ अर्जुन! तुम इसके ऊपर कृपा करो। क्रोध के वशीभूत न हो। इस बालक का पितामह (जयद्रथ) अनार्य, नृशंस और तुम्हारा अपराधी था। उसको भूल जाओ और इस बालक पर कृपा करो। जब दु:शला इस प्रकार करुणायुक्त वचन कहने लगी, तब अर्जुन, राजा धृतराष्ट्र और गान्धारी देवी को याद करके दु:ख और शोक से पीड़ित हो क्षत्रिय–धर्म की निन्दा करने लगे-उस शास्त्र–धर्म को धिक्कार है, जिसके लिये मैंने अपने सारे बान्धवजनों को यमलोक पहुँचा दिया। ऐसा कहकर अर्जुन ने दु:शला को बहुत सान्त्वना दी और उसके प्रति अपने कृपा प्रसाद का परिचय दिया। फिर प्रसन्नतापूर्वक उससे गले मिलकर उसे घर की ओर विदा किया। तदनन्तर सुमुखी दु:शला ने उस महान समर से अपने समस्त योद्धाओं को पीछे लौटाया और अर्जुन की प्रशंसा करती हुई वह अपने घर को लौट गयी। इस प्रकार सैन्धव वीरों को परास्त करके अर्जुन इच्छानुसार विचरने और दौड़ने वाले उस घोड़े के पीछे–पीछे स्वयं भी दौड़ने लगे। जैसे पिनाकधारी महादेव जी आकाश में मृग के पीछे दौड़े थे, उसी प्रकार वीर अर्जुन ने उस यज्ञ सम्बन्धी घोड़े का विधिपूर्वक अनुसरण किया। वह अश्व यथेष्टगति से क्रमश: सभी देशों में घूमता और अर्जुन के पराक्रम का विस्तार करता हुआ इच्छानुसार विचरने लगा। पुरुष प्रवर जनमेजय! इस प्रकार क्रमश: विचरण करता हुआ वह अश्व अर्जुन सहित मणिपुर– नरेश के राज्य में जा पहुँचा।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 78 श्लोक 18-35
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 78 श्लोक 36-49
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