- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 79 में अर्जुन और बभ्रुवाहन का युद्ध एवं अर्जुन की मृत्यु का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
बभ्रुवाहन की अर्जुन से भेंट
वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! मणिपुर नरेश बभ्रुवाहन ने जब सुना कि मेरे पिता आये हैं, तब वह ब्राह्मणों को आगे करके बहुत–सा धन साथ में लेकर बड़ी विनय के साथ उनके दर्शन के लिये नगर से बाहर निकला। मणिपुर नरेश को इस प्रकार आया देख परम बुद्धिमान धनंजय ने क्षत्रिय– धर्म का आश्रय लेकर उसका आदर नहीं किया।उस समय धर्मात्मा अर्जुन कुछ कुपित होकर बोले– बेटा! तेरा यह ढंग ठीक नहीं है। जान पड़ता है, तू क्षत्रिय–धर्म से बहिष्कृत हो गया है। पुत्र! मैं महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ–सम्बन्धी अश्व की रक्षा करता हुआ तेरे राज्य के भीतर आया हूँ। फिर भी तू मुझसे युद्ध क्यों नहीं करता? तुझ दुर्बुद्धि को धिक्कार है, तू निश्चय ही क्षत्रिय धर्म से भ्रष्ट हो गया है, क्योंकि युद्ध के लिये आये हुए मेरा स्वागत–सत्कार तू सामनीति से कर रहा है। तूने संसार में जीवित रहकर भी कोई पुरुषार्थ नहीं किया। तभी तो एक स्त्री की भाँति तू यहाँ युद्ध के लिये आये हुए मुझे शान्तिपूर्वक साथ लेने के लिये चेष्टा कर रहा है।
दुर्बुद्धे! नराधम! यदि मैं हथियार रखकर ख़ाली हाथ तेरे पास आता तो इस ढंग से मिलना ठीक हो सकता था। पतिदेव अर्जुन जब अपने पुत्र बभ्रुवाहन से ऐसी बात कह रहे थे, उस समय नागकन्या उलूपी उस बात को सुनकर उनके अभिप्राय को जान गयी और उनके द्वारा किये गये पुत्र के तिरस्कार को सहन न कर सकने के कारण वह धरती छेदकर वहाँ चली आयी। प्रभो! उसने देखा कि पुत्र बभ्रुवाहन नीचे मुंह किये किसी सोच विचार में पड़ा हुआ है और युद्धार्थी पिता उसे बारंबार डांट–फटकार रहे हैं। तब मनोहर अंगों वाली नागकन्या उलूपी धर्म – निपुण बभ्रुवाहन के पास आकर यह धर्मसम्मत बात बोली-बेटा तुम्हें विदित होना चाहिये कि मैं तुम्हारी विमाता नागकन्या उलूपी हूँ। तुम मेरी आज्ञा का पालन करो। इससे तुम्हें महान धर्म की प्राप्ति होगी। तुम्हारे पिता कुरुकुल के श्रेष्ठ वीर और युद्ध के मद से उन्मत्त रहने वाले हैं। अत: इनके साथ अवश्य युद्ध करो। ऐसा करने से ये तुम पर प्रसन्न होंगे। इसमें संशय नहीं है।’
अर्जुन-बभ्रुवाहन के युद्ध का वर्णन
भरतश्रेष्ठ! माता के द्वारा इस प्रकार अमर्ष दिलाये जाने पर महातेजस्वी राजा बभ्रुवाहन ने मन–ही–मन युद्ध करने का निश्चय किया। सुवर्णमय कवच पहनकर तेजस्वी शिरस्त्राण ( टोप ) धारण करके वह सैकड़ों तरकसों से भरे हुए उत्तम रथ पर आरूढ़ हुआ। उस रथ में सब प्रकार की युद्ध–साम्रगी सजाकर रखी गयी थी। मन के समान वेगशाली घोड़े जुते हुए थे। चक्र और अन्य आवश्यक सामान भी प्रस्तुत थे। सोने के भाण्ड उसकी शोभा बढ़ाते थे। उस पर सिंह के चिन्हों वाली ऊंची ध्वजा फहरा रही थी। उस परम पूजित उत्तम रथ पर सवार हो श्रीमान राजा बभ्रुवाहन अर्जुन का सामना करने के लिये आगे बढ़ा। पार्थ द्वारा सुरक्षित उस यज्ञ सम्बन्धी अश्व के पास जाकर उस वीर ने अश्व शिक्षा विशारद पुरुषों द्वारा उसे पकड़वा लिया। घोड़े को पकड़ा गया देख अर्जुन मन–ही–मन बहुत प्रसन्न हुए। यद्यपि वे भूमि पर खड़े थे तो भी रथ पर बैठे हुए अपने पुत्र को युद्ध के मैंदान में आगे बढ़ने से रोकने लगे।[1]
राजा बभ्रुवाहन ने वहाँ अपने वीर पिता को विषैले साँपों के समान जहरीले और तेज किये हुए सैकड़ों बाण– समूहों द्वारा बींधकर अनेक बार पीड़ित किया। वे पिता और पुत्र दोनों प्रसन्न होकर लड़ रहे थे। उन दोनों का वह युद्ध देवासुर–संग्राम के समान भयंकर जान पड़ता था। उसकी इस जगत में कहीं भी तुलना नहीं थी। बभ्रुवाहन ने हंसते–हंसते पुरुषसिंह अर्जुन के गले की हंसली में झुकी हुई गांठ वाले एक बाण द्वारा गहरी चोट पहुँचायी। जैसे साँप बांबी में घुस जाता है, उसी प्रकार वह बाण अर्जुन के शरीर में पंखसहित घुस गया और उसे छेदकर पृथ्वी में समा गया। इससे अर्जुन को बड़ी वेदना हुई। बुद्धिमान अर्जुन अपने उत्तम धनुष का सहारा लेकर दिव्य तेज में स्थित हो मुर्दे के समान हो गये। थोड़ी देर बाद होश में आने पर महातेजस्वी पुरुष प्रवर इन्द्र कुमार अर्जुन ने अपने पुत्र की प्रशंसा करते हुए इस प्रकार कहा- महाबाहु चित्रांगदा कुमार! तुम्हें साधुवाद। वत्स! तुम धन्य हो। पुत्र! तुम्हारे योग्य पराक्रम देखकर मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। अच्छा बेटा! अब मैं तुम पर बाण छोड़ता हूँ। तुम सावधान एवं स्थिर हो जाओ। ऐसा कहकर शत्रु सूदन अर्जुन ने बभ्रुवाहन पर नाराचों की वर्षा आरम्भ कर दी। परंतु राजा बभ्रुवाहन ने गाण्डीव धनुष से छूटे हुए वज्र और बिजली के समान जेतस्वी उन समस्त नाराचों को अपने भल्लों द्वारा मारकर प्रत्येक दो–दो, तीन–तीन टुकड़े कर दिये। राजन! तब पाण्डुपुत्र अर्जुन ने हंसते हुए–से अपने क्षुर नामक दिव्य बाणों द्वारा बभ्रुवाहन के रथ से सुनहरे तालवृक्ष के समान ऊंची सुवर्ण भूषित ध्वजा काट गिरायी।
शत्रु दमन नरेश! साथ ही उन्होंने उसके महान वेगशाली विशालकाय घोड़ों के भी प्राण ले लिये। तब रथ से उतरकर परम क्रोधी राजा बभ्रुवाहन कुपित हो पैदल ही अपने पिता पाण्डुपुत्र अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा। कुन्ती पुत्रों में श्रेष्ठ इन्द्रकुमार अर्जुन अपने बेटे के पराक्रम से बहुत प्रसन्न हुए थे। इसलिये वे उसे अधिक पीड़ा नहीं देते थे। बलवान बभ्रुवाहन पिता को युद्ध से विरत मानकर विषधर सर्पों के समान विषैले बाणों द्वारा उन्हें पुन: पीड़ा देने लगा। उसने बालोचित अविवेक के कारण परिणाम पर विचार किये बिना ही सुन्दर पांख वाले एक तीखे बाण द्वारा पिता की छाती में एक घहरा आघात किया। राजन! वह अत्यन्त दु:खदायी बाण पाण्डुपुत्र अर्जुन के मर्म–स्थल को विदीर्ण करके भीतर घुस गया।
बभ्रुवाहन द्वारा अर्जुन का मूर्च्छित होना
महाराज! पुत्र के चलाये हुए उस बाण से अत्यन्त घायल होकर कुरुनन्दन अर्जुन मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़े। कौरव–धुरंधर वीर अर्जुन के धराशायी होने पर चित्रांगदा कुमार बभ्रुवाहन भी मूर्च्छित हो गया। राजा बभ्रुवाहन युद्ध स्थल में बड़ा परिश्रम करके लड़ा था। वह भी अर्जुन के बाण समूहों द्वारा पहले से ही बहुत घायल हो चुका था। अत: पिता को मारा गया देख वह भी युद्ध के मुहाने पर अचेत होकर गिर पड़ा और पृथ्वी का आलिंगन करने लगा। पतिदेव मारे गये और पुत्र भी संज्ञा शून्य होकर पृथ्वी पर पड़ा है। यह देख चित्रांगदा ने संतप्त हृदय से समरांगण में प्रवेश किया। मणिपुर–नरेश की माता का हृदय शोक से संतप्त हो उठा था! रोती और कांपती हुई चित्रांगदा ने देखा कि पतिदेव मारे गये।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 79 श्लोक 1-18
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 79 श्लोक 19-39
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