महर्षि अगस्त्य के यज्ञ की कथा

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में महर्षि अगस्त्य के यज्ञ की कथा का वर्णन हुआ है।[1]

वैशम्पायन द्वारा धर्म का वर्णन

जनमेजय ने कहा– भगवन! धर्म के द्वारा प्राप्‍त हुए धन का दान करने से यदि स्‍वर्ग मिलता है तो यह सब विषय मुझे स्‍पष्‍ट रूप से बताइये; क्‍योंकि आप प्रवचन करने में कुशल हैं। ब्राह्मण! उञ्छवृत्‍ति धारण करने वाले ब्राह्मण को न्‍यायत: प्राप्‍त हुए सत्‍तू का दान करने से जिस महान फल की प्राप्‍ति हुई, उसका आपने मुझसे वर्णन किया। निस्‍संदेह यह सब ठीक है। परंतु सभी यज्ञों में यह उत्तम निश्‍चय कैसे कार्यान्‍वित किया जा सकता है। द्विजश्रेष्‍ठ! इस विषय का मुझसे पूर्णत: प्रतिपादन कीजिये।

महर्षि अगस्‍त्‍य के यज्ञ की कथा

वैशम्‍पायन जी ने कहा– राजन! इस विषय में पहले अगस्‍त्‍य मुनि के महान यज्ञ में जो घटित हुई थी, उस प्राचीन इतिहास का जानकर मनुष्‍य उदाहरण दिये करते हैं। महाराज! पहले की बात है, सम्‍पूर्ण प्राणियों के हित में रत रहने वाले महातेजस्‍वी अगस्‍त्‍य मुनि ने एक समय बारह वर्षों में समाप्‍त होने वाले यज्ञ की दीक्षा ली। उन महात्‍मा के यज्ञ में अग्‍नि के समान तेजस्‍वी होता थे। जिनमें फल, मूल का आहार करने वाले, अश्‍मकुट्ट[2],मरीचि[3], परिपृष्‍टिक[4], वैघसिक[5]और प्रसंख्‍यान[6]आदि अनेक प्रकार के यति एवं भिक्षु उपस्‍थित थे। वे सब– के– सब प्रत्‍यक्ष धर्म का पालन करने वाले, क्रोध– विजयी, जितेन्‍द्रीय, मनोनिग्रहपरायण, हिंसा और दम्‍भ से रहित तथा सदा शुद्ध सदाचार में स्‍थित रहने वाले थे। उन्‍हें किसी भी इन्‍द्रिय के के द्वारा कभी बाधा नहीं पहुँचती थी। ऐसे– ऐसे महर्षि वह यज्ञ कराने के लिये वहाँ उपस्‍थित थे। भगवान अगस्‍त्‍य मुनि उस यज्ञ के लिये यथाशक्‍ति विशुद्ध अन्‍न का संग्रह किया था। उस समय उस यज्ञ में वही हुआ, जो उसके योग्‍य था।

उनके सिवा और भी अनेक मुनियों ने बड़े– बड़े यज्ञ किये थे। भरतश्रेष्‍ठ! महर्षि अगस्‍त्‍य का ऐसा यज्ञ जब चालू हो गया, तब देवराज इन्‍द्र ने वहाँ वर्षा बंद कर दी। राजन! तब यज्ञ कर्म के बीच में अवकाश मिलने पर जब विशुद्ध अन्‍त: करण वाले मुनि एक– दूसरे से मिलकर एक स्‍थान पर बैठे, तब उनमें महात्‍मा अगस्‍त्‍य जी के सम्‍बन्‍ध में इस प्रकार चर्चा होने लगी- ‘महर्षियों! सुप्रसिद्ध अगत्‍स्‍य मुनि हमारे यजमान हैं। वे ईर्ष्‍यारहित हो श्रद्धापूर्वक सबको अन्‍न देते हैं। परंतु इधर मेघ जल की वर्षा नहीं कर रहा है। तब भविष्‍य में अन्‍न कैसे पैदा होगा?। ‘ब्राह्मणों! मुनि का यह महान सत्र बारह वर्षों तक चालू रहने वाला है; परंतु इन्‍द्रदेव इन बारह वर्षों में वर्षा नहीं करेंगे। ‘यह सोचकर आप लोग इन अत्‍यन्‍त तपस्‍वी बुद्धिमान महर्षि अगस्‍त्‍य पर अनुग्रह करें (जिससे इनका यज्ञ निर्विघ्‍न पूर्ण हो जाय)’। उनके ऐसा कहने पर प्रतापी अगस्‍त्‍य उन मुनियों को सिर से प्रणाम करके उन्‍हें राजी करते हुए इस प्रकार बोले-। ‘यदि इन्‍द्र बारह वर्षों तक वर्षा नहीं करेंगे तो मैं चिन्‍तन मात्र के द्वारा मानसिक यज्ञ करूंगा। यह यज्ञ की सनातन विधि है। ‘यदि इन्‍द्र बारह वर्षों तक वर्षा नहीं करेंगे तो मैं स्‍पर्श यज्ञ करूंगा। यह भी यज्ञ की सनातन विधि है’। ‘यदि इन्‍द्र बारह वर्षों तक वर्षा नहीं करेंगे तो मैं व्रत– नियमों का पालन करता हुआ ध्‍यान द्वारा ध्‍येय रूप से स्‍थित हो इन यज्ञों का अनुष्‍ठान करूंगा।’[7]

‘यह बीज– यज्ञ मैंने बहुत वर्षा से संवित कर रखा है। उन बीजों से ही मैं अपना यज्ञ पूरा कर लूंगा। इसमें कोई विघ्‍न नहीं होगा। ‘इन्‍द्रदेव यहाँ वर्षा करें अथवा यहाँ वर्षा न हो, इसकी मुझे परवा नहीं है, मेरे इस यज्ञ को किसी तरह व्‍यर्थ नहीं किया जा सकता। ‘अथवा यदि इन्‍द्र इच्‍छानुसार जल बरसाने के लिये की हुई मेरी प्रार्थना पूर्ण नहीं करेगें तो मैं स्‍वयं इन्‍द्र हो जाऊंगा और समस्‍त प्रजा के जीवन की रक्षा करूंगा। ‘जो जिस आहार से उत्‍पन्‍न हुआ है, उसे वही प्राप्‍त होगा तथा मैं बारंबार अधिक मात्रा में विशेष आहार की भी व्‍यवस्‍था करूंगा। ‘तीनो लोकों में जो सुवर्ण या दूसरा कोई धन है, वह सब आज यहाँ स्‍वत: आ जाय।

‘दिव्‍य अप्‍सराओं के समुदाय, गंधर्व, किन्‍नर, विश्‍वावसु तथा जो अन्‍य प्रमुख गन्‍धर्व हैं, वे सब यहाँ आकर मेरे यज्ञ की उपासना करें। ‘उत्‍तर कुरुवर्ष में जो कुछ धन है, वह सब स्‍वयं यहाँ मेरे यज्ञों में उपस्‍थित हो। स्‍वर्ग, स्‍वर्गवासी देवता और धर्म स्‍वयं यहाँ विराजमान हो जायं’। प्रज्‍ज्‍वलित अग्‍नि के समान तेजस्‍वी, अतिशय कान्‍तिमान महर्षि अगस्‍त्‍य के इतना कहते ही उनकी तपस्‍या के प्रभाव से ये सारी वस्‍तुएं वहाँ प्रस्‍तुत हो गईं। उन महर्षियों ने बड़े हर्ष के साथ महर्षि के उस तपोबल को प्रत्‍यक्ष देखा। देखकर वे सब लोग आश्‍चर्यचकित हो गये और इस प्रकार महान अर्थ से भरे हुए वचन बोले। ऋषि बोले– महर्षे! आपकी बातों से हमें बड़ी प्रसन्‍नता हुई है। हम आपकी तपस्‍या का व्‍यय होना नहीं चाहते हैं। हम आपके उन्‍हीं यज्ञों से संतुष्‍ट हैं और न्‍याय से उपार्जित अन्‍न की इच्‍छा रखते हैं। यज्ञ, दीक्षा, होम तथा और जो कुछ हम खोजा करते हैं, वह सब हमें यहाँ प्राप्‍त है। न्‍याय से उपार्जित किया हुआ अन्‍न ही हमारा भोजन है और हम सदा अपने कर्मों में लगे रहते हैं। हम ब्रह्मचर्य का पालन करके न्‍यायत: वेदों को प्राप्‍त करना चाहते हैं और अन्‍त मेंन्‍यायपूर्वक ही हम घर छोड़कर निकले हैं। धर्मशास्‍त्र में देखे गये विधि– विधान से ही हम तपस्‍या करेंगे। आपको हिंसा रहित बुद्धि ही अधिक प्रिय है ; अत: प्रभो! आप यज्ञों में सदा इस अहिंसा का ही प्रतिपादन करें। द्विजश्रेष्‍ठ! ऐसा करने से हम आप पर बहुत प्रसन्‍न होंगे। यज्ञ की समाप्‍ति होने पर जब आप हमें विदा करेंगे, तब हम यहाँ से अपने घर को जायंगे। जनमेजय! जब ऋषि लोग ऐसी बाते कह रहे थे, उसी समय महा तेजस्‍वी देवराज इन्‍द्र ने महर्षि का तपोबल देखकर पानी बरसाना आरम्‍भ किया।जब तक उस यज्ञ की समाप्‍ति नहीं हुई, तब तक अमित पराक्रमी इन्‍द्र ने वहाँ इच्‍छानुसार वर्षा की।[8]

राजर्षे! देवेश्‍वर इन्‍द्र ने स्‍वयं आकर बृहस्‍पति को आगे करके अगस्‍त्‍य ऋषि को मनाया। तदनन्‍तर यज्ञ समाप्‍त होने पर अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हुए अगस्‍त्‍य जी ने उन महामुनियों की विधिवत पूजा करके सबको विदा कर दिया।

जनमेजय ने पूछा– मुने! सोने के मस्‍तक से युक्‍त वह नेवला कौन था, जो मनुष्‍यों की – सी बोली बोलता था ? मेरे इस प्रश्‍न का मुझे उत्‍तर दीजिये।

जनमेजय का नेवले के विषय में जानने का अनुरोध

वैशम्‍पायन जी ने कहा– राजन! यह बात न तो तुमने पहले पूछी थी और न मैंने बतायी थी। अब पूछते हो तो सुनो। वह नकुल कौन था और उसकी मनुष्‍यों की– सी बोली कैसे हुई, यह सब बता रहा हूँ। पूर्वकाल की बात है, एक दिन जमदग्‍नि ऋषि ने श्राद्ध करने का संकल्‍प किया। उस समय उनकी होमधेनू स्‍वयं ही उनके पास आयी और मुनि ने स्‍वयं ही उसका दूध दुहा। उस दूध को उन्‍होंने नये पात्र में, जो सुदृढ़ और पवित्र था, रख दिया। उस पात्र में धर्म ने क्रोध का रूप धारण करके प्रवेश किया। धर्म उन मुनिश्रेष्‍ठ की परीक्षा लेना चाहते थे। उन्‍होंने सोचा, देखूं तो ये अप्रिय करने पर क्‍या करते हैं? इसीलिये उन्‍होंने उस दूध को क्रोध के स्‍पर्श से दूषित कर दिया। राजन! मुनि ने उस क्रोध को पहचान लिया; किन्‍तु उस पर वे कुपित नहीं हुए। तब क्रोध ने ब्राह्मण का रूप धारण किया। मुनि के द्वारा पराजित होने पर उस अमर्षशील क्रोध ने उन भृगुश्रेष्‍ठ से कहा- ‘भृगुश्रेष्‍ठ! मैं तो पराजित हो गया। मैंने सुना था कि भृगुवंशी ब्राह्मण बड़े क्रोधी होते हैं ; परंतु लोक में प्रचलित हुआ यह प्रवाद आज मिथ्‍या सिद्ध हो गया; क्‍योंकि आपने मुझे जीत लिया। ‘प्रभो! आज मैं आपके वश में हूँ। आपकी तपस्‍या से डरता हूँ। साधों! आप क्षमाशील महात्‍मा हैं, मुझ पर कृपा कीजिये’। जमदग्‍नि बोले– क्रोध! मैंने तुम्‍हें प्रत्‍यक्ष देखा है। तुम निश्‍चिन्‍त होकर यहाँ से जाओ। तुमने मेरा कोई अपराध नहीं किया है; अत: आज तुम पर मेरा रोष नहीं है। मैंने जिन पितरों के उद्देश्‍य से इस दूध का संकल्‍प किया था, वे महाभाग पितर ही उसके स्‍वामी हैं। जाओ, उन्‍हीं से इस विषय में समझो। मुनि के ऐसा कहने पर क्रोधरूपधारी धर्म भयभीत हो वहाँ से अदृश्‍य हो गये और पितरों के शाप से उन्‍हें नेवला होना पड़ा। इस शाप का अन्‍त होने के उद्देश्‍य से उन्‍होंने पितरों को प्रसन्‍न किया। तब पितरों ने कहा– ‘तुम धर्मराज युधिष्‍ठिर पर आक्षेप करके इस शाप से छुटकारा पा जाओगे’। उन्‍होंने ही इस नेवले को यज्ञ सम्‍बन्‍धीस्‍थान और धर्मारण्‍य का पता बताया था। वह धर्मराज की निन्‍दा के उद्देश्‍य से दौड़ता हुआ उस यज्ञ में जा पहुँचा था। धर्मपुत्र युधिष्‍ठिर पर आक्षेप करते हुए सेरभर सत्‍तू के दान का माहात्‍म्‍य बताकर क्रोधरूपी धर्म शाप से मुक्‍त हो गया और वह धर्मराज युधिष्‍ठिर में स्‍थित हो गया। इस प्रकार महात्‍मा युधिष्‍ठिर का यज्ञ समाप्‍त होने पर यह घटना घटी थी और वह नेवला हम लोगों के देखते– देखते वहाँ से गायब हो गया था।[9]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-19
  2. खाद्य पदार्थ की पत्थर पर फोड़कर खाने वाले
  3. सूर्य की किरणों का पान करने वाले।
  4. पूछकर दिये हुए अन्न को ही लेने वाले।
  5. यज्ञशिष्ट अन्न को ही भोजन करने वाले।
  6. तत्त्व का विचार करने वाले।
  7. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 श्लोक 1-19
  8. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 श्लोक 20-36
  9. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 श्लोक 37-53

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