अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 82 में अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय का वर्णन हुआ है।[1]

अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– राजन! इसके बाद वह घोड़ा समुद्र पर्यन्‍त सारी पृथ्‍वी की परिक्रमा करके उस दिशा की ओर मुंह करके लौटा, जिस ओर हस्‍तिनापुर था। किरीटधारी अर्जुन भी घोड़े का अनुसरण करते हुए लौट पड़े और दैवेच्‍छा से राजगृह नामक नगर में आ पहुँचे। प्रभो! अर्जुन को अपने नगर के निकट आया देख क्षत्रिय– धर्म में स्‍थित हुए वीर सहदेव कुमार राजा मेघ सन्‍धि ने उन्‍हें युद्ध के लिये आमंत्रित किया। तत्‍पश्‍चात स्‍वयं भी धनुष–बाण और दस्‍ताने से सुसज्‍जित हो रथ पर बैठकर नगर से बाहर निकला। मेघ सन्‍धि ने पैदल आते हुए धनंजय पर धावा किया।
महाराज! धनंजय के पास पहुँचकर महातेजस्‍वी मेघ सन्‍धि ने बुद्धिमानी के कारण नहीं, मूर्खतावश निम्‍नांकित बात कही- ‘भरतनन्‍दन! इस घोड़े के पीछे क्‍यों फिर रहे हो! यह तो ऐसा जान पड़ता है, मानो स्‍त्रियों के बीच चल रहा हो। मैं तो इसका अपहरण कर रहा हूँ। तुम इसे छुड़ाने का प्रयत्‍न करो। ‘यदि युद्ध में मेरे पिता आदि पूर्वजों ने कभी तुम्‍हारा स्‍वागत– सत्‍कार नहीं किया है तो आज मैं इस कमी को पूर्ण करूँगा। युद्ध के मैदान में तुम्‍हारा यथोचित आतिथ्‍य– सत्‍कार करूँगा। पहले मुझ पर प्रहार करो, फिर मैं तुम पर प्रहार करूंगा।

अर्जुन द्वारा वाणों की वर्षा

उसके ऐसा कहने पर पाण्‍डु पुत्र अर्जुन ने उसे हंसते हुए– से इस प्रकार उत्तर दिया– ‘नरेश्‍वर! मेरे बडे भाई ने मेरे लिये इस व्रत की दीक्षा दिलायी है कि जो मेरे मार्ग में विघ्‍न डालने को उद्यत हो, उसे राको। निश्‍चय ही यह बात तुम्‍हें भी विदित है। अत: तुम अपनी शक्‍ति के अनुसार मुझ पर प्रहार करो। मेरे मन में तुम पर कोई रोष नहीं है।’ अर्जुन के ऐसा कहने पर मगध नरेश ने पहले उन पर प्रहार किया। जैसे सहस्‍त्र नेत्रधारी इन्‍द्र जल की वर्षा करते हैं, उसी प्रकार मेघसन्धि अर्जुन पर सहस्‍त्रों बाणों की झड़ी लगाने लगा।
भरतश्रेष्‍ठ! तब गाण्‍डीवधारी अर्जुन ने गाण्‍डीव धनुष से छोड़े गये बाणों द्वारा मेघ सन्‍धि के प्रयत्‍न पूर्वक चलाये गये उन सभी बाणों को व्‍यर्थ कर दिया। शत्रु के बाण समूहों को निष्‍फल करके कपिध्‍वज अर्जुन ने प्रज्‍वलित बाण का प्रहार किया। वे बाण मुख से आग उगलने वाले सर्पों के समान जान पड़ते थे। उन्‍होंने मेघ सन्‍धि की ध्‍वजा, पताका, दण्‍ड, रथ, यन्‍त्र, अश्‍व तथा रथांगों पर बाण मारे; परन्‍तु उसके शरीर और सारथि पर प्रहार नहीं किया। यद्यपि सव्‍यसाची अर्जुन ने जान– बूझकर उसके शरीर की रक्षा की तथापि मगधराज इसे अपना पराक्रम समझने लगा और अर्जुन पर लगातार बाणों का प्रहार करता रहा। मगधराज के बाणों से अत्‍यन्‍त घायल होकर गाण्‍डीवधारी अर्जुन रक्‍त से नहा उठे। उस समय वे वसन्‍त– ऋतु में फूले हुए पलाश वृक्ष की भाँति सुशोभित हो रहे थे। कुरुनन्‍दन! अर्जुन तो उसे मार नहीं रहे थे, परंतु वह उन पाण्‍डव शिरोमणि पर बारंबार चोट कर रहा था। इसीलिये विश्‍वविख्‍यात वीर अर्जुन की दृष्‍टि में वह तब तक ठहर सका।[1]

अर्जुन तथा मेघसन्धि युद्ध वर्णन

अब सव्‍यवाची अर्जुन का क्रोध बढ़ गया। उन्‍होंने अपने धनुष को जोर से खींचा और मेघ सन्‍धि के घोड़ों को प्राणहीन करके उसके सारथि का भी सिर उड़ा दिया। फिर उसके विशाल एवं विचित्र धनुष को क्षुर से काट डाला और उसके दस्‍ताने, पताका और ध्‍वजा को भी धरती पर काट गिराया। घोड़े, धनुष और सारथि के नष्‍ट हो जाने पर मेघ सन्‍धि को बड़ा दु:ख हुआ। वह गदा हाथ में लेकर कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन की ओर बडे वेग से दौडा। उसके आते ही अर्जुन ने गृध्रपंखयुक्‍त बहुसंख्‍यक बाणों द्वारा उसकी सुवर्ण भूषित गदा के शीघ्र ही अनेक टुकड़े कर डाले। उस गदा की मूंठ टूट गयी और उसके टुकडे–टुकड़े हो गये। उस दशा में वह हाथ से छूटी हुई सर्पिणी के समान पृथ्‍वी पर गिर पडी। जब मेघ सन्‍धि रथ, धनुष और गदा से भी वंचित हो गया, तब कपिध्‍वज अर्जुन ने उसे साप्‍त्‍वना देते हुए इस प्रकार कहा- 'बेटा! तुमने क्षत्रिय धर्म का पूरा– पूरा प्रदर्शन कर लिया। अब अपने घर जाओ।
भूपाल! तुम अभी बालक हो। इस समरांगण तुमने जो पराक्रम किया है, यही तुम्‍हारे लिये बहुत है। 'राजन! महाराज युधिष्‍ठिर का यह आदेश है कि 'तुम युद्ध में राजाओं का वध मत न करना।' इसीलिये तुम मेरा अपराध करने पर भी अब तक जीवित हो।' अर्जुन की यह बात सुनकर मेघ सन्‍धि को यह विश्‍वास हो गया कि अब इन्‍होंने मेरी जान छोड़ दी है। तब वह अर्जुन के पास गया और हाथ जोडकर उनका समादर करते हुए कहने लगा।
'वीरवर! आपका कल्‍याण हो। मैं आपसे परास्‍त हो गया। अब मैं युद्ध करने का उत्‍साह नहीं रखता। अब आपको मुझसे जो– जो सेवा लेनी हो, वह बताइये और उसे पूर्ण की हुई ही समझिये'। तब अर्जुन ने उसे धैर्य देते हुए पुन: इस प्रकार कहा– राजन! तुम आगामी चैत्रमास की पूर्णिमा को हमारे महाराज के अश्‍वमेध यज्ञ में अवश्‍य आना।' उनसे ऐसा कहने परे सहदेव पुत्र ने 'बहुत अच्‍छा कहकर उनकी आाज्ञा शिरोधार्य की और उस घोड़े तथा युद्ध स्‍थल के श्रेष्‍ठ वीर अर्जुन विधि पूर्वक पूजन किया। तदनन्‍तर वह घो़ड़ा पुन: अपनी इच्‍छा के अनुसार आगे चला। वह समुद्र के किनारे–किनारे होता हुआ वंग, पुण्‍ड्र और कौसल आदि देशों में गया। राजन! उन देशों में अर्जुन केवल गाण्‍डीव धनुष की सहायता से म्‍लेच्‍छा की अनेक सेनाओं को परास्‍त किया।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 82 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 82 श्लोक 17-30

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