- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 11 में श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को इन्द्र द्वारा शरीरस्थ वृत्रासुर संहार का इतिहास सुनाने का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
युधिष्ठिर की दशा
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अद्भुत कर्मा वेदव्यास जी ने युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा, तब महातेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण कुछ कहने को उद्यत हुए जाति-भाईयों के मारे जाने से युधिष्ठिर का मन शोक से दीन एवं व्याकुल हो रहा था। वे राहु ग्रस्त सूर्य और धूमयुक्त अग्नि के समान निस्तेज हो गये थे। विशेषत: उनका मन राज्य की ओर से खिन्न एवं विरक्त हो गया। यह सब जानकर वृष्णिवंशभूषण श्रीकृष्ण ने कुन्तीकुमार धर्मपुत्र युधिष्ठिर को आश्वासन देते हुए इस प्रकार कहना आरम्भ किया।
श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को इन्द्र द्वारा शरीरस्थ वृत्रासुर संहार का इतिहास सुनाना
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- धर्मराज! कुटिलता मृत्यु का स्थान है और सरलता ब्रह्म की प्राप्ति का साधन है। इस बात को ठीक-ठीक समझ लेना ही ज्ञान का विषय है। इसके विपरीत जो कुछ कहा जाता है, वह प्रलाप है। भला वह किसी का क्या उपकार करेगा? आपने अपने कर्तव्यकर्म को पूरा नहीं किया। आपने अभी तक शत्रुओं पर विजय भी नहीं पायी। आपका शत्रु तो आपके शरीर के भीतर ही बैठा हुआ है। आप अपने उस शत्रु को क्यों हनीं पहचानते हैं? यहाँ मैं आपके समक्ष धर्म के अनुसार एक वृत्तान्त जैसा सुन रखा है, वैसा ही बता रहा हूँ। पूर्वकाल में वृत्रासुर के साथ इन्द्र का जैसा युद्ध हुआ था, वही प्रसंग सुना रहा हूँ। नरेश्वर! कहते हैं, प्राचीन काल में वृत्रासुर ने समूची पृथ्वी पर अधिकार जमा लिया था। इन्द्र ने देखा, वृत्रासुर ने पृथ्वी पर अधिकार कर लिया अैर गन्ध के विषयक का भी अपहरण कर लिया और इस प्रकार पृथ्वी का अपहरण करने से सब ओर दुर्गन्ध का प्रसार हो गया है। तब गन्ध के विषय का अपहरण होने से शतक्रतु इन्द्र को बड़ा क्रोध हुआ। तत्पश्चात उन्होंने कुपित हो वृत्रासुर के ऊपर घोर वज्र का प्रहार किया। महातेजस्वी वज्र से अत्यन्त आहत हो वह असुर सहसा जल में जा घुसा और उसके विषयभूत रस को ग्रहण करने लगा। जब जल पर भी वृत्रासुर का अधिकार तथा रसरूपी विषयक अपहरण हो गया, तब अत्यन्त क्रोध में भरे हुए इन्द्र ने वहाँ भी उस पर वज्र का प्रहार किया। जल में अमिततेजस्वी वज्र की मार खाकर वृत्रासुर सहसा तेजस्वत्त्व में घुस गया और उसके विषय को ग्रहण करने लगा।
वृत्रासुर के द्वारा तेज पर भी अधिकार कर लिया गया और उसके रूप नामक विषय का अपहरण हो गया, यह जानकर शतक्रतु के क्रोध की सीमा न रह गयी। उन्होंने वहाँ भी वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार किया। वज्र के प्रहार से पीड़ित हो सहसा वायु में समा गया और उसक स्पर्श नामक विषय को ग्रहण करने लगा जब वृत्रासुर ने वायु को भी व्याप्त करके उसके स्पर्श नामक विषय का अपहरण कर लिया, तब शतक्रतु ने अत्यन्त कुपित होकर वहाँ उसके ऊपर अपना वज्र छोड़ दिया। वायु के भीतर अमित तेजस्वी वज्र से पीड़ित हो वृत्रासुर भाग कर आकाश में जा छिपा और उसके विषय को ग्रहण करने लगा। जब आकाश वृत्रासुरमय हो गया और उसके शब्दरूपी विषय का अपहरण होने लगा, तब शतक्रतु इन्द्र को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने वहाँ भी उस पर वज्र का प्रहार किया।[1] आकाश के भीतर अमित तेजस्वी वज्र से पीड़ित हो वृत्रासुर सहसा इन्द्र में समा गया और उनके विषय को ग्रहण करे लगा। तात! वृत्रासुर से गृहीत होने पर इन्द्र के मन पर महान मोह छा गया। तब महर्षि वसिष्ठ ने रथन्तर साम के द्वारा उन्हें सचेत किया। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात शतक्रतु ने अपने शरीर के भीतर स्थित हुए वृत्रासुर को अदृश्य वज्र के द्वारा मार डाला ऐसा हमने सुना है। जनेश्वर! यह धर्म सम्मत रहस्य इन्द्र ने महर्षियों को बताया और महर्षियों ने मुझ से कहा। वही रहस्य मैंने आपको सुनया है। आप इसे अच्छी तरह समझें।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-12
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 11 श्लोक 13-20
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