देहरूपी कालचक्र का तथा गृहस्थ और ब्राह्मण के धर्म का कथन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 45 में देहरूपी कालचक्र का तथा गृहस्थ और ब्राह्मण के धर्म का वर्णन हुआ है।[1]

ब्रह्मा द्वारा देहरूपी कालचक्र का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियों! मन के समान वेग वाला (देहरूपी) मनोरम कालचक्र निरन्तर चल रहा है। यह महत्तत्त्व से लेकर स्थूल भूतों तक चौबीस तत्त्वों से बना हुआ है। इसकी गति कहीं भी नहीं रुकती। यह संसार बन्धन का अनिवार्य कारण है। बुढ़ापा और शोक इसे घेरे हुए हैं। यह रोग और दुर्व्यसनों की उत्पत्ति का स्थान है। यह देश और काल के अनुसार विचरण करता रहता है। बुद्धि इस काल चक्र का सार, मन खम्भा और इन्द्रिय समुदाय बन्धन हैं। पंचमहा भूत इसका तना है। अज्ञान ही इसका आवरण है। रम तथा व्यायाम इसके शब्द हैं। रात और दिन इस चक्र का संचालन करते हैं। सर्दी और गर्मी इसका घेरा है। सुख और दु:ख इसकी सन्धियाँ (जोड़) हैं। भूख और प्यास इसके कीलक तथा धूप और छाया इसकी रेखा हैं। आँखों के खोलने और मीचने से इसकी व्याकुलता (चंचलता) प्रकट होती है। घोर मोह रूपी जल (शाकाश्रु) से यह व्याप्त रहता है। यह सदा ही गतिशील और अचेतन है। मास और पक्ष आदि के द्वारा इसकी आयु की गणना की जाती है। यह कभी भी एक सी अवस्था में नहीं रहता।

ऊपर-नीचे और मध्यवर्ती लोकों में सदा सक्कर लगाता रहता है। तमोगुण के वश में होने पर इसकी पाप पक में प्रवृति होती है और रजोगुण कावेग इसे भिन्न-भिन्न कर्मों में लगाया करता है। यह महान दर्प से उद्दीप्त रहता है। तीनों गुणों के अनुसार इसकी प्रवृत्ति देखी जाती है। मानसिक चिन्ता ही इस चक्र की बन्धन पट्टिका है। यह सदा शोक और मृत्यु के वशीभूत रहने वाला तथा क्रिया और कारण से युकत है। आसक्ति ही उसका दीर्घ विस्तार (लंबाई-चौड़ाई) है। लोभ और तृष्णा ही इस चक्र को ऊँचे-नीचे स्थानों में गिराने के हेतु हैं। अद्भुत अज्ञान (माया) इसकी उत्पतित का कारण है। भय और मोह से सब ओर से घेरे हुए हैं। यह प्राणियों को मोह में डालने वाला, आनन्द और प्रीति के लिये विचर ने वाला तथा काम और क्रोध का संग्रह करने वाला है।

गृहस्थ और ब्राह्मण के धर्म का वर्णन

यह राग द्वेषादि द्वन्द्वदों से युकत जड़ देहरूपी कालक्रच ही देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत की सृष्टि और संहार का कारण है। तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति का भी यही साधन है। जो मनुष्य इस देहमय कालचक्र की प्रवृत्ति और निवृत्ति को सदा अच्छी तरह जानता है, वह कभी मोह में नहीं पड़ता। वह सम्पूर्ण वासनाओं, सब प्रकार के द्वन्दों और समस्त पापों से मुक्त होकर परम गति को प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास- ये चार आरम शास्त्रों में बताये गये हैं। गृहस्थ आश्रम ही इन सबका मूल है। इस संसार में जो कोई भी विधि- निषेध रूप शास्त्र कहा गया है, उसमें पारंगत विद्वान होना गृहस्थ द्विजों के लिये उत्तम बात है। इसी से सनातन यश की प्राप्ति होती है। पहले सब प्रकार के संस्कारों से सम्पन्न होकर वेदोकत विधि से अध्ययन करते हुए ब्रह्मयर्च व्रत का पालन करना चाहिये। तत्पश्चात् तत्त्व वेत्ता को उचित है कि वह समावर्तन संस्कार करके उत्तम गुणों से युक्त कुल में विवाह करें। अपनी ही स्त्री पर प्रेम रखना, सदा सत्पुरुषों के आचार का पालन करना और जितेन्द्रिय होना गृहस्थ के लिये परम आवश्यक है। इस आश्रम में उसे श्रद्धापूर्वक पंचमहायज्ञों के द्वारा देवता आदि का यजन करना चाहिये।[1]गृहस्थ को उचित है कि वह देवता और अतिथितियों को भोजन कराने के बाद बचे हुए अन्न का स्वयं आहार करे। वेदोक्त कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न रहे। अपनी शक्ति के अनुसार प्रसन्नतापूर्वक यज्ञ करे और दान दे।[2]

मनन शील गृहस्थ को चाहिये कि हाथ, पैर, नेत्र, वाणी तथा शरीर के द्वारा होने वाली चपलता का परित्याग करे अर्थात इनके द्वारा कोई अनुचित कार्य न होने दे। यही सत्पुरुषों का बर्ताव (शिष्टाचार) है। सदा यज्ञापवीत धारण किये रहे, स्वच्छ वस्त्र पहने, उत्तम व्रत का पालन करे, शौच संतोष आदि नियमों और सत्य अहिंसा आदि यमों के पालन पूर्वक यथाशक्ति दान करता रहे तथा सदा शिष्ट पुरुषों के साथ निवास करे। शिष्टाचार का पालन करते हुए जिह्वा और उपस्थ को काबू में रखे। सबके साथ मित्रता का बर्ताव करे। बाँस की छड़ी और जल से भरा हुआ कमण्डलु सदा साथ रखे। वह आलस्य छोड़कर सदा तीन कमण्डलु धारण करे। एक आचमन के लिये, दूसरा पैर धोने के लिये और तीसरा शौच सम्पादन के लिये। इस प्रकार कमण्डलु धारण के ये तीन प्रयोजन हैं। ब्राह्मण को अध्ययन-अध्यापन, यजन-याजन और दान तथा प्रतिग्रह- इन छ: वृत्तियों का आश्रय लेना चाहिये। इन में से तीन कर्म- याजन (यज्ञ करना), अध्यापन (पढ़ाना) और श्रेष्ठ पुरुषों से दान लेना- ये ब्राह्मण की जीविका के साधन हैं। शेष तीन कर्म- दान, अध्ययन तथा यज्ञानुष्ठान करना- ये धर्मोंपार्जन के लिये हैं। धर्मज्ञ ब्राह्मण को इनके पालन में कभी प्रामद नहीं करना चाहिये। इन्द्रिय संयमी, मित्र भाव से युक्त, क्षमावान, सब प्राणियों के प्रति समान भाव रखने वाला, मननशील, उततम व्रत का पालन करने वाला और पवित्रता से रहने वाला गृहस्थ ब्राह्मण सदा सावधान रहकर अपनी शक्ति के अनुसार यदि उपर्युक्त नियमों का पालन करता है तो वह स्वर्गलोक को जीत लेता है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-16
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 45 श्लोक 17-25

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