- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का तथा अपनी महिमा का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का वर्णन
वैशम्पायन जी कहते हैं– राजन! धर्मपुत्र युधिष्ठिर के इस प्रकार प्रश्न करने पर सम्पूर्ण धर्मों को जानने वाले भगवान श्रीकृष्ण अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे धर्म के सूक्ष्म विषयों का वर्णन करने लगे- ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले कुन्तीनन्दन! तुम धर्म के लिये इतना उद्योग करते हो, इसलिये तुम्हें संसार में कोई वस्तु दुर्लभ नहीं है।
‘राजेन्द्र! सुना हुआ, देखा हुआ, कहा हुआ, पालन किया हुआ और अनुमोदन किया हुआ धर्म मनुष्य को इन्द्र पर पहुँचा देता है। ‘परंतप! धर्म ही जीव का माता– पिता, रक्षक, सुहृद, भ्राता, सखा और स्वामी है। ‘अर्थ, काम, भोग, सुख, उत्तम ऐश्वर्य और सर्वोत्तम स्वर्ग की प्राप्ति भी धर्म से ही होती है। ‘यदि इस विशुद्ध धर्म का सेवन किया जाय तो वह महान भय से रक्षा करता है। धर्म से ही मनुष्य को ब्राह्मणत्त्व और देवत्व की प्राप्ति होती है। धर्म ही मनुष्य को पवित्र करता है। ‘युधिष्ठिर! जब काल – क्रम से मनुष्य का पाप नष्ट हो जाता है, तभी उसकी बुद्धि धर्माचरण मं लगती है।[1]
‘हजारों योनियों में भटकने के बाद भी मनुष्ययोनि का मिलना कठिन होता है। ऐसे दुर्लभ मनुष्य- जन्म को पाकर भी जो धर्म का अनुष्ठान नहीं करता, वह महान लाभ से वंचित रह जाता है। ‘आज जो लोग निन्दित, दरिद्र, कुरुप, रोगी, दूसरों के द्वेष पात्र और मूर्ख देखे जाते हैं, उन्होंने पूर्वजन्म में धर्म का अनुष्ठान नहीं किया है। ‘किंतु जो दीर्घ जीवी शूर– वीर, पण्डित, भोग– साम्रगी से सम्पन्न, निरोग और रूपवान हैं, उनके द्वारा पूर्व जन्म में निश्चय ही धर्म का सम्पादन हुआ है। ‘इस प्रकार शुद्ध भाव से किया हुआ धर्म का अनुष्ठान उत्तम गति की प्राप्ति कराता है, परन्तु जो अधर्म का सेवन करते हैं, उन्हें पशु– पक्षी आदि तिर्यग्योनियों में गिरना पड़ता है।
‘कुन्तीपुत्र युधिष्ठर! अब मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताता हूँ, सुनो। पाण्डुनन्दन! मै तुम भक्त से परम धर्म का वर्णन अवश्य करूंगा। ‘तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो और सदा मरी ही शरण में स्थित रहते हो। तुम्हारे पूछने पर मैं परम गोपनीय आत्म तत्त्व का भी वर्णन कर सकता हूँ, फिर धर्म संहिता के लिये तो कहना ही क्या है? ‘इस समय धर्म की स्थापना और दुष्टों का विनाश करने के लिये अपनी माया से मानव–शरीर में अवतार धारण किया है। ‘जो लोग मुझे केवल मनुष्य-शरीर में ही समझकर मेरी अवहेलना करते हैं, वे मूर्ख हैं और संसार के भीतर बारंबार तिर्यग्योनियों में भटकते रहते हैं। ‘इसके विपरीत जो ज्ञान दृष्टि से मुझे सम्पूर्ण भूतों में स्थित देखते हैं, वे सदा मुझ में मन लगाये रहने वाले मेरे भक्त हैं, ऐसे भक्तों को मैं परम धाम में अपने पास बुला लेता हूँ। ‘पाण्डु पुत्र! मेरे भक्तों का नाश नहीं होता, वे निष्पाप होते हैं।
मनुष्यों में उन्हीं का जन्म सफल है, जो मेरे भक्त हैं। ‘पाण्डुनन्दन! पापों में अभिरत रहने वाले मनुष्य भी यदि मेरे भक्त हो जाय तो वे सारे पापों से वैसे ही मुक्त हो जाते हैं, जैसे जल से कमल का पत्ता निर्लिप्त रहता है। ‘हजारों जन्मों तक तपस्या करने से जब मनुष्यों का अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब नि:संदेह भक्ति का उदय होता है। ‘मेरा जो अत्यन्त गोपनीय कूटस्थ, अचल और अविनाशी परस्वरूप है, उसका मेरे भक्तों को जैसा अनुभव होता है, वैसा देवताओं को भी नहीं होता। ‘पाण्डव! जो मेरा अपरस्वरूप है, वह अवतार लेने पर दृष्टि गोचर होता है।
कृष्ण द्वारा महिमा का वर्णन
संसार के समस्त जीव सब प्रकार के पदार्थों से उसकी पूजा करते हैं। ‘हजारों और करोड़ो कल्प आकर चले गये, पर जिस वैष्णरूप को देवगण देखते हैं, उसी रूप से मैं भक्तों को दर्शन देता हूँ। ‘जो मनुष्य मुझे जगत की उत्पत्ति, स्थित और संहार का कारण समझकर मेरी शरण लेता है, उसके ऊपर कृपा करके मैं उसे संसार– बन्धन से मुक्त कर देता हूँ। ‘मैं ही देवताओं का आदि हूँ। ब्रह्मा आदि देवताओं की मैंने ही सृष्टि की है। मैं ही अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर सम्पूर्ण संसार की सृष्टि करता हूँ।[2]
‘मैं अव्यक्त परमेश्वर ही तमोगुण का आधार रजोगुण के भीतर स्थित और उत्कृष्ट सत्त्वगुण में भी व्याप्त हूँ। मुझे लोभ नहीं है। ब्रह्मा से लेकर छोटे से कीड़े तक सब मैं व्याप्त हो रहा हूँ। ‘द्युलोक को मेरा मस्तक समझो। सूर्य और चन्द्रमा मेरी आंखें हैं। गौ, अग्नि और ब्राह्मण मेरे मुख हैं और वायु मेरी सांस है। ‘आठ दिशाएँ मेरी बांहें, नक्षत्र मेरे आभूषण और सम्पूर्ण भूतों को अवकाश देने वाला अन्तरिक्ष मेरा वक्ष:स्थल है। बादलों और हवा के चलने का जो मार्ग है, उसे मेरा अविनाशी उदर समझो। ‘युधिष्ठिर! द्वीप, समुद्र और जंगलों से भरा हुआ यह सबको धारण करने वाला भूमण्डल मेरे दोनों पैरों के स्थान में है। ‘आकाश में एक गुणवाला हूँ, वायु में दो गुणवाला हूँ, अग्नि में तीन गुणवाला हूँ और जल में चार गुणवाला हूँ। पृथ्वी में पांच गुणों से स्थित हूँ।
वही मैं तन्मात्रारूप पंचमहाभूतों में शब्दादि पांच गुणों से स्थित हूँ। ‘मेरे हजारों मस्तक, हजारों मुख, हजारों नेत्र, हजारों भुजाएं, हजारों उदर, हजारों ऊरु और हजारों पैर हैं। ‘मैं पृथ्वी को सब ओर से धारण करके नाभि से दस अंगुल ऊंचे सबके हृदय में विराजमान हूँ। सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मारूप से स्थित हूं, इसलिये सर्वव्यापी कहलाता हूँ। ‘राजन! मैं अचिन्त्य, अन्नत, अजर, अजन्मा, अनादि, अवध्य, अप्रमेय, अव्यय, निर्गुण, गुहास्वरूप, निर्द्वन्द्व, निर्मम, निष्कल, निर्विकार और मोक्ष का आदि कारण हूँ। नरेश्वर! सुधा और स्वधा और स्वाहा भी मैं ही हूँ। ‘मैंने ही अपने तेज और तप से चार प्रकार के प्राणि समुदाय को स्नेह पाश रूप रज्जू से बांधकर अपनी माया से धारण कर रखा है। ‘मैं चारों आश्रमों का धर्म, चार प्रकार के होताओं से सम्पन्न होने वाले यज्ञ का फल भोगने वाला चतुर्व्यूह, चतुर्यज्ञ और चारों आश्रमों को प्रकट करने वाला हूँ।
‘युधिष्ठिर! प्रलयकाल में समस्त जगत का संहार करके उसे अपने उदर में स्थापित कर दिव्य योग का आश्रय ले मैं एकार्णव के जल में शयन करता हूँ। ‘एक हजार युगों तक रहने वाली ब्रह्मा की रात पूर्ण होने तक महावर्ण में शयन करने के पश्चात स्थावार– जंगम प्राणियों की सृष्टि करता हूँ। ‘प्रत्येक कल्प में मेरे द्वारा जीवों की सृष्टि और संहार का कार्य होता है, किंतु मेरी माया से मोहित होने के कारण वे जीव मुझे नहीं जान पाते। ‘प्रलयकाल में जब दीपक के शान्त होने की भाँति समस्त व्यक्त सृष्टि लुप्त हो जाती है, जब खोज करने योग्य मुझ अदृश्य रूप की गति का उनको पता नहीं लगता। ‘राजन! कहीं कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें मेरा निवास न हो तथा कोई ऐसा जीव नहीं है, जो मुझमें स्थित न हो। ‘जो कुछ भी स्थूल– सूक्ष्म रूप यह जगत हो चुका है और होने वाला है, उन सबमें उसी प्रकार मैं ही जीव रूप से स्थित हूँ। ‘अधिक कहने से क्या लाभ, मैं तुमसे यह सच्ची बात बता रहा हूँ कि भूत और भविष्य जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ। ‘भरतनन्दन! सम्पूर्ण भूत मुझसे ही उत्पन्न होते हैं और मेरे हीस्वरूप हैं।[3] फिर भी मेरी माया से मोहित रहते हैं, इसलिये मुझे नहीं जान पाते। ‘राजन्! इस प्रकार देवता, असुर और मनुष्यों सहित समस्त संसार का मुझसे ही जन्म और मुझमें ही लय होता है’।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-1
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-2
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-3
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-4
संबंधित लेख
महाभारत आश्वमेधिक पर्व में उल्लेखित कथाएँ
अश्वमेध पर्व
युधिष्ठिर का शोकमग्न होकर गिरना और धृतराष्ट्र का उन्हें समझाना
| श्रीकृष्ण और व्यास का युधिष्ठिर को समझाना
| व्यास का युधिष्ठिर से संवर्त और मरुत्त का प्रसंग कहना
| व्यास द्वारा मरुत्त के पूर्वजों का वर्णन
| बृहस्पति का मनुष्य को यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा करना
| नारद की आज्ञा से मरुत्त की संवर्त से भेंट
| मरुत्त के आग्रह पर संवर्त का यज्ञ कराने की स्वीकृति देना
| संवर्त का मरुत्त को सुवर्ण की प्राप्ति के लिए महादेव की नाममयी स्तुति का उपदेश
| मरुत्त की सम्पत्ति से बृहस्पति का चिन्तित होना
| बृहस्पति का इन्द्र से अपनी चिन्ता का कारण बताना
| इन्द्र की आज्ञा से अग्निदेव का मरुत्त के पास संदेश लेकर जाना
| अग्निदेव का संवर्त के भय से लौटना और इन्द्र से ब्रह्मबल की श्रेष्ठता बताना
| इन्द्र का गन्धर्वराज को भेजकर मरुत्त को भय दिखाना
| संवर्त का मन्त्रबल से देवताओं को बुलाना और मरुत्त का यज्ञ पूर्ण करना
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को इन्द्र द्वारा शरीरस्थ वृत्रासुर संहार का इतिहास सुनाना
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को मन पर विजय पाने का आदेश
| श्रीकृष्ण द्वारा ममता के त्याग का महत्त्व
| श्रीकृष्ण द्वारा कामगीता का उल्लेख तथा युधिष्ठिर को यज्ञ हेतु प्रेरणा
| युधिष्ठिर द्वारा ऋषियों की विदाई और हस्तिनापुर में प्रवेश
| युधिष्ठिर के धर्मराज्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण का अर्जुन से द्वारका जाने का प्रस्ताव
अनुगीता पर्व
अर्जुन का श्रीकृष्ण से गीता का विषय पूछना
| श्रीकृष्ण का अर्जुन से सिद्ध, महर्षि तथा काश्यप का संवाद सुनाना
| सिद्ध महात्मा द्वारा जीव की विविध गतियों का वर्णन
| जीव के गर्भ-प्रवेश का वर्णन
| आचार-धर्म, कर्म-फल की अनिवार्यता का वर्णन
| संसार से तरने के उपाय का वर्णन
| गुरु-शिष्य के संवाद में मोक्ष प्राप्ति के उपाय का वर्णन
| ब्राह्मणगीता, एक ब्राह्मण का पत्नी से ज्ञानयज्ञ का उपदेश करना
| दस होताओं से सम्पन्न होने वाले यज्ञ का वर्णन
| मन और वाणी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मन-बुद्धि और इन्द्रियरूप सप्त होताओं का वर्णन
| यज्ञ तथा मन-इन्द्रिय संवाद का वर्णन
| प्राण, अपान आदि का संवाद और ब्रह्मा का सबकी श्रेष्ठता बताना
| नारद और देवमत का संवाद एवं उदान के उत्कृष्ट रूप का वर्णन
| चातुर्होम यज्ञ का वर्णन
| अन्तर्यामी की प्रधानता
| अध्यात्म विषयक महान वन का वर्णन
| ज्ञानी पुरुष की स्थिति तथा अध्वर्यु और यति का संवाद
| परशुराम के द्वारा क्षत्रिय कुल का संहार
| अलर्क के ध्यानयोग का उदाहरण देकर पितामहों का परशुराम को समझाना
| परशुराम का तपस्या के द्वारा सिद्धि प्राप्त करना
| राजा अम्बरीष की गायी हुई आध्यात्मिक स्वराज्यविषयक गाथा
| ब्राह्मणरूपधारी धर्म और जनक का ममत्वत्याग विषयक संवाद
| ब्राह्मण का पत्नी के प्रति अपने ज्ञाननिष्ठ स्वरूप का परिचय देना
| श्रीकृष्ण द्वारा ब्राह्मणगीता का उपसंहार
| गुरु-शिष्य संवाद में ब्रह्मा और महर्षियों के प्रश्नोत्तर
| ब्रह्मा के द्वारा तमोगुण, उसके कार्य और फल का वर्णन
| रजोगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल
| सत्त्वगुण के कार्य का वर्णन और उसके जानने का फल
| सत्त्व आदि गुणों का और प्रकृति के नामों का वर्णन
| महत्तत्त्व के नाम और परमात्मतत्त्व को जानने की महिमा
| अहंकार की उत्पत्ति और उसके स्वरूप का वर्णन
| अहंकार से पंच महाभूतों और इन्द्रियों की सृष्टि
| अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवत का वर्णन
| निवृत्तिमार्ग का उपदेश
| चराचर प्राणियों के अधिपतियों का वर्णन
| धर्म आदि के लक्षणों का और विषयों की अनुभूति के साधनों का वर्णन
| क्षेत्रज की विलक्षणता
| सब पदार्थों के आदि-अन्त का और ज्ञान की नित्यता का वर्णन
| देहरूपी कालचक्र का तथा गृहस्थ और ब्राह्मण के धर्म का कथन
| ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी के धर्म का वर्णन
| मुक्ति के साधनों का, देहरूपी वृक्ष का तथा ज्ञान-खंग से उसे काटने का वर्णन
| आत्मा और परमात्मा के स्वरूप का विवेचन
| धर्म का निर्णय जानने के लिए ऋषियों का प्रश्न
| ब्रह्मा द्वारा सत्त्व और पुरुष की भिन्नता का वर्णन
| ब्रह्मा द्वारा बुद्धिमान की प्रशंसा
| पंचभूतों के गुणों का विस्तार और परमात्मा की श्रेष्ठता का वर्णन
| तपस्या का प्रभाव
| आत्मा का स्वरूप और उसके ज्ञान की महिमा
| अनुगीता का उपसंहार
| श्रीकृष्ण का अर्जुन के साथ हस्तिनापुर जाना
| श्रीकृष्ण का सुभद्रा के साथ द्वारका को प्रस्थान
| कौरवों के विनाश से उत्तंक मुनि का कुपित होना
| श्रीकृष्ण का क्रोधित उत्तंक मुनि को शांत करना
| श्रीकृष्ण का उत्तंक से अध्यात्मतत्त्व का वर्णन
| श्रीकृष्ण का उत्तंक मुनि को कौरवों के विनाश का कारण बताना
| श्रीकृष्ण का उत्तंक मुनि को विश्वस्वरूप का दर्शन कराना
| श्रीकृष्ण द्वारा उत्तंक मुनि को मरुदेश में जल प्राप्ति का वरदान
| उत्तंक की गुरुभक्ति का वर्णन
| उत्तंक का गुरुपुत्री के साथ विवाह
| उत्तंक का दिव्यकुण्डल लाने के लिए सौदास के पास जाना
| उत्तंक का सौदास से उनकी रानी के कुण्डल माँगना
| उत्तंक का कुण्डल हेतु रानी मदयन्ती के पास जाना
| उत्तंक का कुण्डल लेकर पुन: सौदास के पास लौटना
| तक्षक द्वारा कुण्डलों का अपहरण
| उत्तंक को पुन: कुण्डलों की प्राप्ति
| श्रीकृष्ण का द्वारका में रैवतक महोत्सव में सम्मिलित होकर सबसे मिलना
| श्रीकृष्ण का वसुदेव को महाभारत युद्ध का वृत्तान्त संक्षेप में सुनाना
| श्रीकृष्ण का वसुदेव को अभिमन्यु वध का वृत्तांत सुनाना
| वसुदेव आदि यादवों का अभिमन्यु के निमित्त श्राद्ध करना
| व्यास का उत्तरा और अर्जुन को समझाकर युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ की आज्ञा देना
| युधिष्ठिर का भाइयों से परामर्श तथा धन लाने हेतु प्रस्थान
| पांडवों का हिमालय पर पड़ाव और उपवासपूर्वक रात्रि निवास
| शिव आदि का पूजन करके युधिष्ठिर का धनराशि को ले जाना
| उत्तरा के मृत बालक को जिलाने के लिए कुन्ती की श्रीकृष्ण से प्रार्थना
| परीक्षित को जिलाने के लिए सुभद्रा की श्रीकृष्ण से प्रार्थना
| उत्तरा की श्रीकृष्ण से पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना
| श्रीकृष्ण का उत्तरा के मृत बालक को जीवन दान देना
| श्रीकृष्ण द्वारा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्डवों का हस्तिनापुर आगमन
| श्रीकृष्ण द्वारा पांडवों का स्वागत
| व्यास तथा श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को यज्ञ के लिए आज्ञा देना
| व्यास की आज्ञा से अश्व की रक्षा हेतु अर्जुन की नियुक्ति
| व्यास द्वारा भीम, नकुल तथा सहदेव की विभिन्न कार्यों हेतु नियुक्ति
| सेना सहित अर्जुन के द्वारा अश्व का अनुसरण
| अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अर्जुन का प्राग्ज्यौतिषपुर के राजा वज्रदत्त के साथ युद्ध
| अर्जुन के द्वारा वज्रदत्त की पराजय
| अर्जुन का सैन्धवों के साथ युद्ध
| दु:शला के अनुरोध से अर्जुन और सैन्धवों के युद्ध की समाप्ति
| अर्जुन और बभ्रुवाहन का युद्ध एवं अर्जुन की मृत्यु
| अर्जुन की मृत्यु से चित्रांगदा का विलाप
| अर्जुन की मृत्यु पर बभ्रुवाहन का शोकोद्गार
| उलूपी का संजीवनी मणि द्वारा अर्जुन को पुन: जीवित करना
| उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताना
| अर्जुन का पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पुन: अश्व के पीछे जाना
| अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय
| अश्व का द्वारका, पंचनद तथा गांधार देश में प्रवेश
| अर्जुन द्वारा शकुनिपुत्र की पराजय
| युधिष्ठिर की आज्ञा से यज्ञभूमि की तैयारी
| युधिष्ठिर के यज्ञ की सजावट और आयोजन
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से अर्जुन का संदेश कहना
| अर्जुन के विषय में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर की बातचीत
| अर्जुन का हस्तिनापुर आगमन
| उलूपी और चित्रांगदा सहित बभ्रुवाहन का स्वागत
| अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ
| युधिष्ठिर का ब्राह्मणों और राजाओं को विदा करना
| युधिष्ठिर के यज्ञ में नेवले का आगमन
| नेवले का सेरभर सत्तूदान को अश्वमेध यज्ञ से बढ़कर बताना
| हिंसामिश्रित यज्ञ और धर्म की निन्दा
| महर्षि अगस्त्य के यज्ञ की कथा
वैष्णवधर्म पर्व
युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से वैष्णवधर्म विषयक प्रश्न
| श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का तथा अपनी महिमा का वर्णन
| चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन
| धर्म की वृद्धि और पाप के क्षय होने का उपाय
| व्यर्थ जन्म, दान और जीवन का वर्णन
| सात्त्विक दानों का लक्षण
| दान का योग्य पात्र
| ब्राह्मण की महिमा
| बीज और योनि की शुद्धि का वर्णन
| गायत्री मन्त्र जप की महिमा का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा और उनके तिरस्कार के भयानक फल का वर्णन
| यमलोक के मार्ग का कष्ट
| यमलोक के मार्ग-कष्ट से बचने के उपाय
| जल दान और अन्न दान का माहात्म्य
| अतिथि सत्कार का महात्म्य
| भूमि दान की महिमा
| तिल दान की महिमा
| उत्तम ब्राह्मण की महिमा
| अनेक प्रकार के दानों की महिमा
| पंचमहायज्ञ का वर्णन
| विधिवत स्नान और उसके अंगभूत कर्म का वर्णन
| भगवान के प्रिय पुष्पों का वर्णन
| भगवान के भगवद्भक्तों का वर्णन
| कपिला गौ तथा उसके दान का माहात्म्य
| कपिला गौ के दस भेद
| कपिला गौ का माहात्म्य
| कपिला गौ में देवताओं के निवासस्थान का वर्णन
| यज्ञ और श्राद्ध के अयोग्य ब्राह्मणों का वर्णन
| नरक में ले जाने वाले पापों का वर्णन
| स्वर्ग में ले जाने वाले पुण्यों का वर्णन
| ब्रह्महत्या के समान पाप का वर्णन
| जिनका अन्न वर्जनीय है, उन पापियों का वर्णन
| दान के फल और धर्म की प्रशंसा का वर्णन
| धर्म और शौच के लक्षण
| संन्यासी और अतिथि सत्कार के उपदेश
| दानपात्र ब्राह्मण का वर्णन
| अन्नदान की प्रशंसा
| भोजन की विधि
| गौओं को घास डालने का विधान
| तिल का माहात्म्य
| आपद्धर्म, श्रेष्ठ और निन्द्य ब्राह्मण
| श्राद्ध का उत्तम काल
| मानव धर्म-सार का वर्णन
| अग्नि के स्वरूप में अग्निहोत्र की विधि
| अग्निहोत्र के माहात्म्य का वर्णन
| चान्द्रायण व्रत की विधि
| प्रायश्चितरूप में चान्द्रायण व्रत का विधान
| सर्वहितकारी धर्म का वर्णन
| द्वादशी व्रत का माहात्म्य
| युधिष्ठिर के द्वारा भगवान की स्तुति
| विषुवयोग और ग्रहण आदि में दान की महिमा
| पीपल का महत्त्व
| तीर्थभूत गुणों की प्रशंसा
| उत्तम प्रायश्चित
| उत्तम और अधम ब्राह्मणों के लक्षण
| भक्त, गौ और पीपल की महिमा
| श्रीकृष्ण के उपदेश का उपसंहार
| श्रीकृष्ण का द्वारकागमन
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज