मानव धर्म-सार का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में मानव धर्म-सार का वर्णन हुआ है।[1]

कृष्ण से युधिष्ठिर का अनुरोध

युधिष्ठिर ने कहा- भगवन! आप साक्षात नारायण, पुरातन ईश्‍वर और सम्‍पूर्ण जगत के निवास स्‍थान हैं। आपको नमस्‍कार है। अब मैं सम्‍पूर्ण धर्मों का सार पूर्णतया श्रवण करना चाहता हूँ। श्रीभगवान ने कहा- महाप्राज्ञ! मनु जी ने सृष्‍टि के आदिकाल में जो धर्म के सार-तत्‍व का वर्णन किया है, वह पुराणों के अनुकूल और वेद के द्वारा समर्थित है। उसी मनुप्रोक्‍त धर्म का वर्णन करता हूँ, सुनो। अग्‍निहोत्र द्विज, कपिला गौ, या करने वाला पुरुष, राजा, सन्‍यायी और महासागर- ये दर्शनमात्र से मनुष्‍य को पवित्र कर देते हैं, इसलिये सदा इनका दर्शन करना चाहिये। एक गौ, एक वस्‍त्र, एक शय्या ओर एक स्‍त्री को कभी अनेक मनुष्‍यों के अधिकार में नहीं देना चाहिये; क्‍योंकि वैसा करने पर उस दान का फल दाता को नहीं मिलता।

मानव धर्म-सार का वर्णन

जो ब्राह्मण का, देवता का, दरिद्र का और गुरु का धन यदि चुरा लिया जाय तो वह स्‍वर्गवासियों को भी नीचे गिरा देता है। जो धर्म का तत्‍व जानना चाहते हैं, उनके लिये वेद मुख्‍य प्रमाण हैं, धर्मशास्‍त्र दूसरा प्रमाण है और लोकाचार तीसरा प्रमाण है। पूर्व समुद्र से लेकर पश्‍चिम समुद्र तक और हिमालय तथा विन्‍ध्‍याचल के बीच का जो देश है, उसे आर्यावर्त कहते हैं। सरस्‍वती और दृषद्वती- इन दोनों देवनदियों के बीच का जो देवताओं द्वारा रचा हुआ देश है, उसे ब्रह्मावर्त कहते हैं। जिस देश में चारों वर्णों तथा उनके अवान्‍तर भेदों का जो आचार पूर्व परम्‍परा से चला आता है, वही उनके लिये सदाचार कहलाता है। कुरुक्षेत्र, मत्‍स्‍य, पोचाल और शूरसेन- ये ब्रह्मर्षियों के देश हैं और ब्रह्मावर्त के समीप हैं।

इस देश में उत्‍पन्‍न हुए ब्राह्मणों के पास जाकर भूमण्‍डल के सम्‍पूर्ण मनुष्‍यों को अपने-अपने आचरण की शिक्षा लेनी चाहिये। हिमालय और विन्‍ध्‍याचल के बीच में कुरुक्षेत्र से पूर्व और प्रयाग से पश्‍चिम का जो देश है, वह मध्‍यदेश कहलाता है। जिस देश में कृष्‍णसार नामक मृग स्‍वभावत: विचरा करता है, वही यज्ञ के लिये उपयोगी देश है; उससे भिन्‍न म्‍लेच्‍छों का देश है। इन देशों का परिचय प्राप्‍त करके द्विजातियों को इन्‍हीं में निवास करना चाहिये; किन्‍तु शूद्र जीविका न मिलने पर निर्वाह के लिये किसी भी देश में निवास कर सकता है। सदाचार, क्षत्रिय और वैश्‍यों का गर्भाधान से लेकर अन्‍त्‍येष्‍टि पर्यन्‍त सब संस्‍कार वेदोक्‍त पवित्र विधियों ओर मन्‍त्रों के अनुसार कराना चाहिये; क्‍योंकि संस्‍कार इहलोक और परलोक में भी पवित्र करने वाला है।

गर्भाधान-संस्‍कार में किये जाने वाले हवन के द्वारा और जातिकर्म, नामकरण, चूड़ाकरण, यज्ञोपवीत, वेदाध्‍ययन, वेदोक्‍त व्रतों के पालन, स्‍नातक के पालने योग्‍य व्रत, विवाह, पंचमहायज्ञों के अनुष्‍ठान तथा अन्‍यान्‍य यज्ञों के द्वारा इस शरीर को परब्रह्मा की प्राप्‍ति के योग्‍य बनाया जाता है। जिससे न धर्म का लाभ होता हो, न अर्थ का तथा विद्याप्राप्‍ति क अनुकूल जो सेवा भी नहीं करता हो, उस शिष्‍य को विद्या नहीं पढ़नी चाहिये, ठीक उसी तरह जैसे ऊसर खेत में उत्तम बीज नहीं बोया जाता। जिस पुरुष से लौकिक, वैदिक तथा आध्‍यात्‍मिक ज्ञान प्राप्‍त हुआ हो, उस गुरु को पहले प्रणाम करना चाहिये। अपने दाहिने हाथ से गुरु का दाहिना चरण पकड़कर प्रणाम करना चाहिये। गुरु को एक हाथ से कभी प्रणाम नहीं करना चाहिये।[1]

जो गर्भाधान आदि सब संस्‍कार विधिवत कराता है और वेद पढ़ाता है, वह ब्राह्मण गुरु कहलाता है। जो उपनयन-संस्‍कार कराकर कल्प और रहस्‍यों-सहित वेदों का नित्‍य अध्‍ययन कराता है, उसे उपाध्‍याय कहते हैं। जो षडगयुक्‍त वेदों को पढ़ाकर वैदिक व्रतों की शिक्षा देता है और मन्‍त्रार्थों की व्‍याख्‍या करता है, वह आचार्य कहलाता है।

गौरव में दस उपाध्‍यायें से बढ़कर एक आचार्य, सौ आचार्यों से बढ़कर पिता और सौ पिता से भी बढ़कर माता है। किंतु जो ज्ञान देने वाले गुरु हैं, वे इन सब की अपेक्षा अत्‍यन्‍त श्रेष्‍ठ हैं। गुरु से बढ़कर न कोई हुआ है, न होगा। इसलिये मनुष्‍य को उपर्युक्‍त गुरुजनों के अधीन रहकर उनकी सेवा-सुश्रूषा में लगे रहना चाहिये।

इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि गुरुजनों के अपमान से नरक में गिरना पड़ता है। जो लोग किसी अंग से हीन हों, जिनका कोई अंग अधिक हो, जो विद्या से हीन, अवस्‍था के बूढ़े, रूप और धन से रहित तथा जाति से भी नीच हों, उन पर आक्षेप नहीं करना चाहिये।

क्‍योंकि आक्षेप करने वाले मनुष्‍य का पुण्‍य, जिसका आक्षेप किया जाता है, उसके पास चला जाता है और उसका पाप आक्षेप करने वाले के पास चला आता है। नास्‍तिकता, वेदों की निन्‍दा, देवताओं पर दोषारोपण, द्वेष, दम्‍भ, अभिमान, क्रोध तथा कठोरता- इनका परित्‍याग कर देना चाहिये।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-47
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-48

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श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को यज्ञ के लिए आज्ञा देना | व्यास की आज्ञा से अश्व की रक्षा हेतु अर्जुन की नियुक्ति | व्यास द्वारा भीम, नकुल तथा सहदेव की विभिन्न कार्यों हेतु नियुक्ति | सेना सहित अर्जुन के द्वारा अश्व का अनुसरण | अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अर्जुन का प्राग्ज्यौतिषपुर के राजा वज्रदत्त के साथ युद्ध | अर्जुन के द्वारा वज्रदत्त की पराजय | अर्जुन का सैन्धवों के साथ युद्ध | दु:शला के अनुरोध से अर्जुन और सैन्धवों के युद्ध की समाप्ति | अर्जुन और बभ्रुवाहन का युद्ध एवं अर्जुन की मृत्यु | अर्जुन की मृत्यु से चित्रांगदा का विलाप | अर्जुन की मृत्यु पर बभ्रुवाहन का शोकोद्गार | उलूपी का संजीवनी मणि द्वारा अर्जुन को पुन: जीवित करना | उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताना | अर्जुन का पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पुन: अश्व के पीछे जाना | अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय | अश्व का द्वारका, पंचनद तथा गांधार देश में प्रवेश | अर्जुन द्वारा शकुनिपुत्र की पराजय | युधिष्ठिर की आज्ञा से यज्ञभूमि की तैयारी | युधिष्ठिर के यज्ञ की सजावट और आयोजन | श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से अर्जुन का 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