अतिथि सत्कार का माहात्मय

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में अतिथि सत्कार का माहात्मय का वर्णन हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण द्वारा अतिथि सत्कार का माहात्मय

‘पाण्‍डुनन्‍दन! देश– काल के अनुसार प्राप्‍त एवं रास्‍ता चलकर थके– माँदे आये हुए भूखे और अन्‍न चाहने वाले ब्राह्मण को अन्‍न– दान करना चाहिये। ‘जो दूर का रास्‍ता तय करने के कारण दुर्बल तथा भूख– प्‍यास और परिश्रम से थका– माँदा हो, जिसके पैर बड़ी कठिनता से आगे बढ़ते हों तथा जो बहुत पीड़ित हो रहा हो, ऐसा ब्राह्मण अन्‍न दाता का पता पूछता हुआ धूल से भरे पैरों से यदि घर पर आकर अन्‍न की याचना करे तो यत्‍नपूर्वक उसकी पूजा करनी चाहिये; क्‍योंकि अतिथि स्वर्ग का सोपान होता है। नरश्रेष्ठ! उसके संतुष्‍ट होने पर सम्‍पूर्ण देवता संतुष्‍ट हो जाते हैं। ‘पार्थ! अतिथि की पूजा करने से अग्नि देव को जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी हविष्‍य से होम करने और फूल तथा चन्‍दन चढ़ाने से भी नहीं होती।

‘पाण्‍डवश्रेष्‍ठ! देवता के ऊपर चढ़ी हुई पत्र– पुष्‍प आदि पूजन– साम्रगी को हटाकर उस स्‍थान को साफ करना, ब्राह्मण के जूठे किये हुए बर्तन और स्‍थान को माँज– धो देना, थके हुए ब्राह्मण के पैर दबाना, उसके चरण धोना, उसे रहने के लिये घर, सोने के लिये शय्या और बैठने के लिये आसन देना– इनमें से एक– एक कार्य का महत्त्व गोदान से बढ़कर है। ‘जो मनुष्‍य ब्राह्मणों को पैर धोने के लिये जल, पैर में लगाने के लिये घी, दीपक, अन्‍न और रहने के लिये घर देते हैं, वे कभी यमलोक में नहीं जाते। ‘शत्रुदमन! राजन! ब्राह्मण का अतिथि सत्‍कार तथा भक्‍ति पूर्वक उसकी सेवा करने से समस्‍त तैंतीसों देवताओं की सेवा हो जाती है। ‘पहले का परिचित मनुष्‍य यदि घर पर आवे तो उसे अभ्‍यागत कहते हैं और अपरिचित पुरुष अतिथि कहलाता है।[1]

द्विजों को दोनों की ही पूजा करनी चाहिये। यह पंचम वेद– पुराण की श्रुति है। ‘राजेन्‍द्र! जो मनुष्‍य अतिथि के चरणों में तेल मलकर, उसे भोजन कराकर और पानी पिलाकर उसकी पूजा करता है, उसके द्वारा मेरी भी पूजा हो जाती है– इसमें संशय नहीं है। ‘वह मनुष्‍य तुरंत सब पापों से छुटकारा पा जाता है और मेरी कृपा से चन्‍द्रमा के समान उज्‍जवल विमान पर आरूढ़ होकर मेरे परमधाम को पधारता है। ‘थका हुआ अभ्‍यागत जब घर पर आता है, तब उसके पीछे– पीछे समस्‍त देवता, पितर और अग्‍नि भी पदार्पण करते हैं।

यदि उस अभ्‍यागत द्विज की पूजा हुई तो उसके साथ उन देवता आदि की भी पूजा हो जाती है और उसके निराश लौटने पर वे देवता, पितर आदि भी हताश हो जाते हैं। ‘जिसके घर से अतिथि को निराश होकर लौटना पड़ता है, उसके पितर पंद्रह वर्षों तक भोजन नहीं करते। ‘जो देश– काल के अनुसार घर पर आये हुए ब्राह्मण को वहाँ से बाहर कर देता है, वह तत्‍काल पतित हो जाता है– इसमें संदेह नहीं है। ‘यदि देश– काल के अनुसार अन्‍न की इच्‍छा से चाण्‍डाल भी अतिथि के रूप में आ जाय जो गृहस्‍थ पुरुष को सदा उसका सत्‍कार करना चाहिये। ‘जो अतिथि का सत्‍कार नहीं, उसका ऊनी वस्‍त्र ओढ़ना, अपने लिये रसोई बनवाना और भोजन करना– सब कुछ निश्‍चय ही व्‍यर्थ है।

‘जो प्रतिदिन सांगोपांग वेदों का स्‍वाध्‍याय करता है, किंतु अतिथि की पूजा नहीं, उस द्विज का जीवन व्‍यर्थ है। ‘जो लोग पाक–यज्ञ, पंचमहायज्ञ तथा सोमयाग आदि के द्वारा यजन करते हैं, परंतु घर पर आये हुए अतिथि का सत्‍कार नहीं करते, वे यश की इच्‍छा से जो कुछ दान या यज्ञ करते हैं, वह सब व्‍यर्थ हो जाता है। अतिथि की मारी गयी आशा मनुष्‍य के समस्‍त शुभ-कर्मों का नाश कर देती है। ‘इसलिये श्रद्धालु होकर देश, काल, पात्र और अपनी शक्‍ति का विचार करके अल्‍प, मध्‍यम अथवा महान रूप में अतिथि–सत्‍कार अवश्‍य करना चाहिये।’ जब अतिथि अपने द्वार पर आवे, तब बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह प्रसन्‍नचित्त होकर हंसते हुए मुख से अतिथि का स्‍वागत करे तथा बैठने को आसन और चरण धोने के लिये जल देकर अन्‍न-पान आदि के द्वारा उसकी पूजा करे।

‘अपना हितैषी, प्रेमपात्र, द्वेषी, मूर्ख अथवा पण्‍डित–जो कोई भी बलिवैश्‍वदेव के बाद आ जाय, वह स्‍वर्ग तक पहुँचाने वाला अतिथि है। ‘जो यज्ञ का फल पाना चाहता हो, वह भूख–प्‍यास और परिश्रम से दु:खी तथा देश–काल के अनुसार प्राप्‍त हुए अतिथि को सत्‍कार पूर्वक अन्‍न प्रदान करे। ‘यज्ञ और श्राद्ध में अपने से श्रेष्‍ठ पुरुष को विधिवत भोजन करना चाहिये। अन्‍न मनुष्‍यों का प्राण है, अन्‍न देने वाला प्राणदाता होता है; इसलिये कल्‍याण की इच्‍छा रखने वाले पुरुष को विशेष रूप से अन्‍न–दान करना चाहिये। ‘अन्‍न प्रदान करने वाला मनुष्‍य सब भोगों से तृप्‍त होकर भली-भाँति आभूषणों सं सम्‍पन्‍न हुआ पूर्ण चन्‍द्रमा के प्रकाश से प्रकाशित विमान द्वारा देवलोक में जाता है। वहाँ सुन्‍दर स्‍त्रियों द्वारा उसकी सेवा की जाती है। ‘वहाँ करोड़ वर्षों तक देवताओं के समान भोग भोगने के बाद समय पर वहाँ से गिरकर यहाँ महायशस्‍वी और वेदशास्‍त्रों के अर्थ और तत्त्व को जानने वाला भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है।[2]

‘जो मनुष्‍य श्रद्धापूर्वक अतिथि–सत्‍कार करता है, वह मनुष्‍यों में महान धनवान, श्रीमान, वेद– वेदांग का पारदर्शी, सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के अर्थ और तत्त्व का ज्ञाता एवं भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है। ‘जो मनुष्‍य धर्मपूर्वक धन का उपार्जन करके भोजन में भेद न रखते हुए एक वर्ष तक सब का अतिथि–सत्‍कार करता है, उसके समस्‍त पाप नष्‍ट हो जाते हैं। ‘नरेश्‍वर! जो सत्‍यवादी जितेन्‍द्रिय पुरुष समय का नियम न रखकर सभी अतिथियों की श्रद्धापूर्वक सेवा करता है, जो सत्‍य प्रतिज्ञ है, जिसने क्रोध को जीत लिया है, जो शाखा धर्म से रहित, अधर्म से डरने वाला और धर्मात्‍मा है, जो माया और मत्‍सरता से रहित है, जो भोजन में भेद–भाव नहीं करता तथा जो नित्‍य पवित्र और श्रद्धा सम्‍पन्‍न रहता है, वह दिव्‍य विमान के द्वारा इन्‍द्र लोक में जाता है। वहाँ वह दिव्‍यरूपधारी और महायशस्‍वी होता है। अप्‍सराएं उसके यश का गान करती हैं। ‘वह एक मन्‍वन्‍तर तक वहीं देवताओं से पूजित होता है और क्रीड़ा करता रहता है। उसके बाद मनुष्‍य लोक में आकर भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है।’[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-20
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-21
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-22

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