युधिष्ठिर का ब्राह्मणों और राजाओं को विदा करना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 89 में युधिष्ठिर का ब्राह्मणों और राजाओं को विदा करने का वर्णन हुआ है।[1]

युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों और राजाओं को विदा करना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं– जनमेजय! उन श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों ने अन्‍यान्‍य पशुओं का विधिपूर्वक श्रपण करके उस अश्‍व का भी शास्‍त्रीय विधि के अनुसार आलभन किया। राजन! तत्‍पश्‍चात याजकों ने विधि पूर्वक अश्व का श्रपण करके उसके समीप मन्त्र, द्रव्‍य और श्रद्धा– इन तीन कलाओं से युक्‍त मनस्‍विनी द्रौपदी को शास्‍त्रोक्‍त विधि के अनुसार बैठाया। भरतश्रेष्‍ठ! इसके बाद ब्राह्मणों ने शान्‍त चित्त होकर उस अश्‍व की चर्बी निकाली और उसका विधि पूर्वक श्रपण करना आरम्‍भ किया। भाइयों सहित धर्मराज युधिष्‍ठिर ने शास्त्र की आज्ञा के अनुसार उस चर्बी के धूम की गन्‍ध सूंघ, जो समस्‍त पापों का नाश करने वाली थी।

नरेश्‍वर! उस अश्‍व के जो शेष अंग थे, उनको धीर स्‍वभाव वाले समस्‍त सोलह ऋत्‍विजों ने अग्‍नि में होम कर दिया। इस प्रकार इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी राजा युधिष्‍ठिर के उस यज्ञ को समाप्‍त करके शिष्‍यों सहित भगवान व्‍यास ने उन्‍हें बधाई दी– अभ्‍युदय सूचक आशीर्वाद दिया। इसके बाद युधिष्‍ठिर ने सब ब्राह्मणों को विधि पूर्वक एक हजार करोड़ ( एक खर्व ) स्‍वर्ण मुद्राएं दक्षिणा में देकर व्‍यास जी को सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी दान कर दी। राजन! सत्‍यवतीनन्‍दन व्‍यास ने उस भूमि दान को ग्रहण करके भरतश्रेष्‍ठ धर्मराज युधिष्‍ठिर से कहा- ‘नृपश्रेष्‍ठ! तुम्‍हारी दी हुई इस पृथ्‍वी को मैं पुन: तुम्‍हारे ही अधिकार में छोड़ता हूँ।

ब्राह्मणों और राजाओं को दान देना

तुम मुझे इसका मूल्‍य दे दो ; क्‍योंकि ब्राह्मण धन के ही इच्‍छुक होते हैं ( राज्‍य के नहीं )’। तब महामनस्‍वी नरेशों के बीच में भाइयों सहित बुद्धिमान महामना युधिष्ठिर ने उन ब्राह्मणों से कहा- ‘विप्रवरो! अश्‍वमेध नामक महायज्ञ में पृथ्‍वी की दक्षिणा देने का विधान है ; अत: अर्जुन के द्वारा जीती हुई यह सारी पृथ्‍वी मैंने ऋत्‍विजों को दे दी है। अब मैं वन में चला जाऊँगा। आप लोग चातुर्होत्र यज्ञ के प्रमाणानुसार पृथ्‍वी के चार भाग करके इसे आपस में बांट लें। द्विजश्रेष्‍ठगण! मैं ब्राह्मणों का धन लेना नहीं चाहता। ब्राह्मणों! मेरे भाइयों का भी सदा ऐसा ही विचार रहता है।’ उनके ऐसा कहने पर भीमसेन आदि भाइयों और द्रौपदी ने एक स्‍वर से कहा– ‘हाँ, महाराज का कहना ठीक है। ‘महान त्‍याग की बात सुनकर सब के रोंगटे खड़े हो गये।

भारत! उस समय आकाशवाणी हुई– ‘पाण्‍डवों! तुमने बहुत अच्‍छा निश्‍चय किया। तुम्‍हें धन्‍यवाद!’ इसी प्रकार पाण्‍डवों के सत्‍साहस की प्रशंसा करते हुए ब्राह्मण समूहों का भी शब्‍द वहाँ स्‍पष्‍ट सुनायी दे रहा था। तब मुनिवर द्वैपायन कृष्‍ण ने पुन: ब्राह्मणों के बीच में युधिष्‍ठिर की प्रशंसा करते हुए कहा- ‘राजन! तुमने तो यह पृथ्‍वी मुझे दे ही दी। अब मैं अपनी ओर से इसे वापस करता हूँ। तुम इन ब्राह्मणों को सुवर्ण दे दो और पृथ्‍वी तुम्‍हारे ही अधिकार में रह जाय।’ तब भगवान श्रीकृष्‍ण ने धर्मराज युधिष्‍ठिर से कहा– ‘धर्मराज! भगवान व्‍यास जैसा कहते हैं वैसा ही तुम्‍हें करना चाहिये।’[1]

यह सुनकर कुरुश्रेष्‍ठ युधिष्ठिर भाइयों सहित बहुत प्रसन्‍न हुए और ब्राह्मणों को उन्‍होंने यज्ञ के लिये एक–एक करोड़ की तिगुनी दक्षिणा दी। महाराज मरुत्त के मार्ग का अनुसरण करने वाले राजा युधिष्‍ठिर ने उस समय जैसा महान त्‍याग किया था, वैसा इस संसार में दूसरा कोई राजा नहीं कर सकेगा। विद्वान महर्षि व्‍यास ने वह सुवर्ण राशि लेकर ब्राह्मणों को दे दी ओर उन्‍होंने चार भाग करके उसे आपस में बांट लिया। इस प्रकार पृथ्‍वी के मूल्‍य के रूप में वह सुवर्ण देकर राजा युधिष्‍ठिर अपने भाइयों सहित बहुत प्रसन्‍न हुए। उनके सारे पाप धुल गये और उन्‍होंने स्‍वर्ग पर अधिकार प्राप्‍त कर लिया। उस अन्‍नत सुवर्ण राशि को पाकर ऋत्‍विजों ने बड़े उत्‍साह और आनन्‍द के साथ उसे ब्राह्मणों को बांट दिया। यज्ञशाला में भी जो कुछ सुवर्ण या सोने के आभूषण, तोरण, यूप, घड़े, बर्तन और ईंटें थीं, उन सबको भी युधिष्‍ठिर की आज्ञा लेकर ब्राह्मणों ने आपस में बांट लिया।
ब्राह्मणों के लेने के बाद जो धन पड़ा रह गया, उसे क्षत्रिय, वैश्‍य, शूद्र तथा मलेच्‍छा जाति के लोग उठा ले गये। तदनन्‍तर सब ब्राह्मण प्रसन्‍नतापूर्वक अपने घरों को गये। बुद्धिमान धर्मराज युधिष्‍ठिर ने उन सबको उस धन के द्वारा पूर्णत: तृप्‍त कर दिया था। उस महान सुवर्ण राशि में से महातेजस्‍वी भगवान व्‍यास ने जो अपना भाग प्राप्‍त किया था, उसे उन्‍होंने बड़े आदर के साथ कुन्‍ती को भेंट कर दिया। श्वसुर की ओर से प्रेमपूर्वक मिले हुए उस धन को पाकर कुन्‍ती देवी मन– ही– मन बहुत प्रसन्‍न हुईं और उसके द्वारा उन्‍होंने बड़े– बड़े सामूहिक पुण्‍य– कार्य किये। यज्ञ के अन्‍त में अवभृथ स्‍नान करते पाप रहित हुए राजा युधिष्‍ठिर अपने भाइयों से सम्‍मानित हो इस प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे देवताओं से पूजित देवराज इन्‍द्र सुशोभित होते हैं।

दु:शला आदि को दान देकर विदा करना

महाराज! वहाँ आये हुए समस्‍त भूपालों से घिरे हुए पाण्‍डव लोग ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो तारों से घिरे हुए ग्रह सुशोभित हों। तदनन्‍तर पाण्‍डवों यज्ञ में आये हुए राजाओं को भी तरह–तरह के रत्‍न, हाथी, घोड़े, आभूषण, स्‍त्रियाँ, वस्‍त्र और सुवर्ण भेंट किये। राजन! उस अन्‍नत धन राशि को भूपाल मण्‍डल में बांटते हुए कुन्‍तीकुमार युधिष्‍ठिर कुबेर के समान शोभा पाते थे। तत्‍पश्‍चात वीर राजा बभ्रुवाहन को अपने पास बुलाकर राजा ने उसे बहुत– सा धन देकर विदा किया। भरतश्रेष्‍ठ! अपनी बहिन दु:शला की प्रसन्‍नता के लिये बुद्धिमान युधिष्‍ठिर ने उसके बालक पौत्र को पिता के राज्‍य पर अभिषिक्त कर दिया। जितेन्द्रिय कुरुराज युधिष्‍ठिर ने सब राजाओं को अच्‍छी तरह धन दिया और उनका विशेष सत्‍कार करके उन्‍हें विदा कर दिया। महाराज! इसके बाद महात्‍मा भगवान श्रीकृष्‍ण, महाबली बलदेव तथा प्रद्युम्‍न आदि अन्‍यान्‍य सहस्‍त्रों वृष्‍णि वीरों की विधिवत पूजा करके भाइयों सहित शत्रु दमन महातेजस्‍वी राजा युधिष्‍ठिर ने उन सबको विदा किया।[2]

इस प्रकार बुद्धिमान धर्मराज युधिष्‍ठिर का वह यज्ञ पूर्ण हुआ। उसमें अन्‍न, धन और रत्‍नों के ढेर लगे हुए थे। देवताओं के मन में अतिशय कामना उत्‍पन्‍न महाराज युधिष्‍ठिर के अश्‍वमेध यज्ञ में एक नेवले का आगमन करने वाली वस्‍तुओं का सागर लहराता था। कितने ही ऐसे तालाब थे, जिनमें घी की कीचड़ जमी हुई थी और अन्‍न के तो पहाड़ ही खड़े थे।

भरतभूषण! रस से भरी कीचड़ रहित नदियाँ बहती थीं। (पीपल और सोंठ मिलाकर जो मूंग का जूस तैयार किया जाता है, उसे ‘खाण्‍डव’ कहते हैं। उसी में शक्‍कर मिला हुआ हो तो वह ‘खाण्‍डवराग’ कहा जाता है।) भक्ष्‍य-भोज्‍य पदार्थ और खाण्‍डवराग कितनी मात्रा में बनाये और खाये जाते हैं तथा कितने पशु वहाँ बांधें हुए थे, इसकी कोई सीमा वहाँ के लोगों को नहीं दिखायी देती थी।

उस यज्ञ के भीतर आये हुए सब लोग मत्त-प्रमत्त और आन्‍नद विभोर हो रहे थे। युवतियाँ बड़ी प्रसन्‍नता के साथ वहाँ विचरण करती थीं। मृदंगों और शंखों की ध्‍वनियों से उस यज्ञ शाला की मनोरमता और भी बढ़ गयी थी। ‘जिसकी जैसी इच्‍छा हो, उसको वही वस्‍तु दी जाय।

सबको इच्‍छानुसार भोजन कराया जाय’– यह घोषणा दिन– रात जारी रही थी– कभी बन्‍द नहीं होती थी। ह्ष्‍ट– पुष्‍ट मनुष्‍यों से भरे हुए उस यज्ञ– महोत्‍सव की चर्चा नाना देशों के निवासी मनुष्‍य बहुत दिनों तक करते रहे। भरतश्रेष्‍ठ राजा युधिष्‍ठिर ने उस यज्ञ में धन की मूसलाधार वर्षा की। सब प्रकार की कामनाओं, रत्‍नों और रसों की भी वर्षा की। इस प्रकार पाप रहित और कृतार्थ होकर उन्‍होंने अपने नगर में प्रवेश किया।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 89 श्लोक 1-18
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 89 श्लोक 19-38
  3. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 89 श्लोक 39-44

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