हिंसामिश्रित यज्ञ और धर्म की निन्दा

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 91 में हिंसामिश्रित यज्ञ और धर्म की निन्दा का वर्णन हुआ है।[1]

जनमेजय का अश्‍वमेध नामक यज्ञ की निन्‍दा जानने का वर्णन

जनमेजय ने कहा– प्रभो! राजा लोग यज्ञ में संलग्‍न होते हैं, महर्षि तपस्‍या में तत्‍पर रहते हैं और ब्राह्मण लोग शान्‍ति (मनोनिग्रह)– में स्‍थित होते हैं। मन का निग्रह हो जाने पर इन्‍द्रयों का संयम स्‍वत: ही सिद्ध हो जाता है। अत: यज्ञ फल की समानता करने वाला कोई कर्म यहाँ मुझे नहीं दिखाई देता है। यज्ञ के सम्‍बन्‍ध में मेरा तो ऐसा विचार है और नि:संदेह यही ठीक है। यज्ञों का अनुष्‍ठान करके बहुत– से राजा और श्रेष्‍ठ ब्राह्मण इहलोक में उत्तम कीर्ति पाकर मृत्‍यु के पश्‍चात स्‍वर्गलोक में गये हैं। सहस्‍त्र नेत्रधारी महातेजस्‍वी देवराज भगवान इन्‍द्र ने बहुत– सी दक्षिणा वाले बहुसंख्‍यक यज्ञों का अनुष्‍ठान करके देवताओं का समस्‍त साम्राज्‍य प्राप्‍त किया था। भीम और अर्जुन को आगे रखकर राजा युधिष्‍ठिर भी समृद्धि और पराक्रम की दृष्‍टि से देवराज इन्‍द्र के ही तुल्‍य थे। फिर उस नेवले ने महात्‍मा राजा युधिष्‍ठिर के उस अश्‍वमेध नामक यज्ञ की निन्‍दा क्‍यों की?

हिंसामिश्रित यज्ञ का वर्णन

वैशम्‍पायन जी ने कहा– नरेश्‍वर! भरतनन्‍दन! मैं यज्ञ की श्रेष्‍ठ विधि और फल का यहाँ यथावत वर्णन करता हूँ, तुम मेरा कथन सुनो। राजन! प्राचीन काल की बात है, जब इन्‍द्र का यज्ञ हो रहा था और सब महर्षि मन्‍त्रोचारण कर रहे थे, ऋत्‍विज लोग अपने–अपने कर्मों में लगे थे, यज्ञ का काम बड़े समारोह और विस्‍तार के साथ चल रहा था, उत्‍तम गुणों से युक्‍त आहुतियों का अग्‍नि में हवन किया जा रहा था, देवताओं का आवहान हो रहा था, बड़े– बड़े महर्षि खड़े थे, ब्राह्मण लोग बड़ी प्रसन्‍नता के साथ वेदोक्‍त मन्‍त्रों का उत्तम स्‍वर से पाठ करते थे और शीघ्रकारी उत्‍तम अध्‍वर्युगण बिना किसी थकावट के अपने कर्तव्‍य का पालन कर रहे थे। इतने ही में पशुओं के आलभ्‍य का समय आया।

महाराज! जब पशु पकड़ लिये गये, तब महर्षियों को उन पर बड़ी दया आयी। उन पशुओं की दयनीय अवस्‍था देखकर वे तपोधन ऋषि इन्‍द्र के पास जाकर बोले– ‘यह जो यज्ञ में पशुवध का विधान है, यह शुभ कारक नहीं है। ‘पुरंदर! आप महान धर्म की इच्‍छा करते हैं तो भी जो पशुवध के उद्यत हो गये हैं, यह आपका अज्ञान ही है; क्‍योंकि यज्ञ में पशुओं के वध का विधान शास्‍त्र में नहीं देखा गया है। ‘प्रभो! आपने जो यज्ञ का समारम्‍भ किया है, यह धर्म को हानि पहुँचाने वाला है।

धर्म की निन्दा का वर्णन

यह यज्ञ धर्म के अनुकूल नहीं है, क्‍योंकि हिंसा को कहीं भी धर्म नहीं कहा गया है। ‘यदि आपकी इच्‍छा हो तो ब्राह्मण लोग शास्‍त्र के अनुसार ही इस यज्ञ का अनुष्‍ठान करें। शास्‍त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ करने से आपको महान धर्म की प्राप्‍ति होगी। ‘सहस्‍त्र नेत्रधारी इन्‍द्र! आप तीन वर्ष के पुराने बीजों (जौ, गेहूँ आदि अनाजों) – से यज्ञ करें। यही महान धर्म है और महान गुणकारक फल की प्राप्‍ति कराने वाला है। तत्त्वदर्शी ऋषियों के कहे हुए इस वचन को इन्‍द्र ने अभिमान वश नहीं स्‍वीकार किया। वे मोह के वशीभूत हो गये थे।

इन्‍द्र के उस यज्ञ में जुटे हुए तपस्‍वी लोगों में इस प्रश्‍न को लेकर महान विवाद खड़ा हो गया। भारत! एक पक्ष कहता था कि जंगम पदार्थ ( पशु आदि )– के द्वारा यज्ञ करना चाहिये और दूसरा पक्ष्‍ा कहता था कि स्‍थावर वस्‍तुओं (अन्‍न–फल आदि)– के द्वारा यजन करना उचित है। भरतनन्‍दन! वे तत्‍वदर्शी ऋषि जब इस विवाद से बहुत खिन्‍न हो गये, तब उन्‍होंने इन्‍द्र के साथ सलाह लेकर इस विषय में राजा उपरिचर वसु से पूछा–‘महामते! हम लोग धर्म विशयक संदेह में पड़े हुए हैं। आप हमसे सच्‍ची बात बताइये। ‘महाभाग नृपश्रेष्‍ठ! यज्ञों के विषय में शास्त्र का मत कैसा है? मुख्‍य- मुख्‍य पशुओं द्वारा यज्ञ करना अथवा बीजों एवं रसों द्वारा।

यह सुनकर राजा वसु ने उन दोनों पक्षों के कथन में कितना सार या आसार है, इसका विचार न करके यों ही बोल दिया कि ‘जब जो वस्‍तु मिल जाय, उसी से यज्ञ कर लेना चाहिये’ इस प्रकार कहकर असत्‍य निर्णय देने के कारण चेदिराज वसु को रसातल में जाना पड़ा। अत: कोई संदेह उपस्‍थित होने पर स्‍वयम्‍भू भगवान प्रजापति को छोड़कर अन्‍य किसी कहुज्ञ पुरुष को भी अकेले कोई निर्णय नहीं देना चाहिये। उस अशुद्ध बुद्धि वाले पापी पुरुष के दिये दान कितने ही अधिक क्‍यों न हों, वे सब– के– सब अनाहत होकर नष्‍ट हो जाते है। अधर्म में प्रवृत्त हुए दुर्बुद्धि दुरात्‍मा हिंसक मनुष्‍य जो दान देते हैं, उससे इहलोक या परलोक में उनकी कीर्ति नहीं होती।

जो मूर्ख अन्‍यायोपार्जित धन का बारंबार संग्रह करके धर्म के विषय में संशय रखते हुए यजन करता है, उसे धर्म का फल नहीं मिलता। जो धर्मध्‍वजी, पापात्‍मा एवं नराधम है, वह लोक में अपना विश्‍वास जमाने के लिये ब्राह्मणों को दान देता है, धर्म के लिये नहीं। जो ब्राह्मण पापकर्म से धन पाकर उंछृखल हो राग और मोह के वशीभूत हो जाता है, वह अन्‍त में कलुषित गति को प्राप्‍त होता है। वह लोभ और मोह के वश में पड़कर संग्रह करने की बुद्धि को अपनाता है। कृपणतापूर्वक पैसे बटोरने का विचार रखता है। फिर बुद्धि को अशुद्ध कर देने वाले पापाचार के द्वारा प्राणियों को उद्वेग में डाल देता है। इस प्रकार जो मोहवश अन्‍याय से धन का उपार्जन करके उसके द्वारा दान या यज्ञ करता है, वह मरने के बाद भी उसका फल नहीं पाता; क्‍योंकि वह धन पाप से मिला हुआ होता है।

तपस्‍या के धनी धर्मात्‍मा पुरुष उंछ (बीने हुए अन्‍न), फल, मूल, शाक और जल पात्र का ही अपनी शक्‍ति के अनुसार दान करके स्‍वर्गलोक में चले जाते हैं। यही धर्म है, यही महान योग है, दान, प्राणियों पर दया, ब्रह्मचर्य, सत्‍य, करुणा, धृति और क्षमा– ये सनातन धर्म के सनातन मूल हैं। सुना जाता है कि पूर्वकाल में विश्‍वामित्र आदि नरेश इसी से सिद्धि को प्राप्‍त हुए थे। विश्‍वामित्र, असित, राजाजनक, कक्षसेन, आर्ष्‍टिषेण और भूपाल सिन्‍धुद्वीप– ये तथा अन्‍य बहुत– से राजा तथा तपस्‍वी न्‍यायोपार्जित धन के दान और सत्‍य भाषण द्वारा परम सिद्धि को प्राप्‍त हुए हैं। भरतनन्‍दन! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शुद्र जो भी तप का आश्रय लेते हैं, वे दान धर्म रूपी अग्‍नि से तपकर सुवर्ण के समान शुद्ध हो स्‍वर्गलोक को जाते हैं।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 91 श्लोक 1-17
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 91 श्लोक 18-37

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