- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में विधिवत स्नान और उसके अंगभूत कर्म का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद
युधिष्ठिर ने कहा– देवदेव! आप दैत्यों के विनाशक और देवताओं के स्वामी हैं। जनार्दन! अपने इस भक्त को स्नान करने की विधि बताइये।
श्रीभगवान बोले– पाण्डुनन्दन! जिस विधि के अनुसार स्नान करने से द्विजगण समस्त पापों से छूट जाते हैं, उस परम पापनाशक विधि का पूर्ण रूप से श्रवण करो। मिट्टी, गोबर, तिल, कुशा और फूल आदि शास्त्रोक्त सामग्री लेकर जल के समीप जाये। श्रेष्ठ द्विज को उचित है कि वह नदी में स्नान करने के पश्चात और किसी जल में न नहाये। अधिक जलवाला जलाशय उपलब्ध हो तो थोड़े– से जल में कभी स्नान न करे। ब्राह्मण को चाहिये कि जल के निकट जाकर शुद्ध और मनोरम जगह पर मिट्टी और गोबर आदि सामग्री रख दे। तथा पानी से बाहर ही प्रयत्नपूर्वक अपने दोनों पैर धोकर उसके जल को नमस्कार करे।
विधिवत स्नान करने का वर्णन
पाण्डुनन्दन! जल सम्पूर्ण देवताओं का तथा मेरा भी स्वरूप है; अत: उस पर प्रहार नहीं करना चाहिये। जलाशय के जल से उसके किनारे भूमि को धोकर साफ करे। फिर बुद्धिमान पुरुष पानी में प्रवेश करके एक बार सिर्फ डुबकी लगावे, अंगों की मैल न छुड़ाने लगे। इसके बाद पुन: आचमन करे। हाथ का आकार गाय के कान की तरह बनाकर उससे तीन बार जल पीये। फिर अपने पैरों पर जल छिड़क कर दो बार मुख में जल का स्पर्श करे। तदनन्तर गले के ऊपरी भाग में स्थित आंख, कान ओर नाक आदि समस्त इन्द्रियों का एक– एक बार जल से स्पर्श करे। फिर दोनों भुजाओं का स्पर्श करने के पश्चात हृदय और नाभि का स्पर्श भी करे। इस प्रकार प्रत्येक अंग में जल का स्पर्श कराकर फिर मस्तक पर जल छिड़के। इसके बाद ‘आप:[2] पुनन्तु’ मंत्र पढ़कर फिर आचमन करे अथवा आचमन के समय ओंकार और व्याहृतियों सहित ‘सदसम्पतिम्’[3] इस ऋचा का पाठ करें। आचमन के बाद मिट्टी लेकर उसके तीन भाग करे और ‘इदं[4] विष्णु:’ इस मंत्र को पढ़कर उसे क्रमश: ऊपर के, मध्य के तथा नीचे के अंगों में लगावे। तत्पश्चात् वारुण– सूक्तों से जल को नमस्कार करके स्नान करे।[1]
यदि नदी हो तो जिस ओर से उसकी धारा आती हो, उसी ओर मुँह करके तथा दूसरे जलाशयों में सूर्य की ओर मुँह करके स्नान करना चाहिये। ॐकारका उच्चारण करते हुए धीरे से गोता लगावे, जल में हलचल पैदा न करे। बाद गोबर को हाथ में ले जल से गीला करके उसके तीन भाग करे और उसे भी पूर्ववत अपने शरीर के उर्ध्व भाग, मध्य भाग तथा अधो भाग में लगावे। उस समय प्रणव और व्याहृतियों सहित गायत्री मंत्र की पुनरावृत्ति करता रहे। फिर मुझमें चित्त लगाकर आचमन करने के पश्चात ‘आपो[5] हिष्ठा मयो’ इत्यादि तीन ऋचाओं से और गोसूक्त, अश्वसूक्त, वैष्णवसूक्त, वारुणसूक्त, सावित्रसूक्त, ऐन्द्रसूक्त, वामदैव्यसूक्त तथा मुझसे सम्बन्ध रखने वाले अन्य साम मंत्रों के द्वारा शुद्ध जल से अपने ऊपर मार्जन करे। फिर जल के भीतर स्थित होकर अघमर्षणसूक्त[6] का जप करे। अथवा प्रणव एवं व्याहृतियों सहित गायत्री मंत्र जपे या जब तक सांस रुकी रहे तब तक मेरा स्मरण करते हुए केवल प्रणव का ही जप करता रहे। इस प्रकार स्नान करके जलाशय के किनारे आकर धोये हुए शुद्ध वस्त्र– धोती और चादर धारण करे। चादर को कांख में रस्सी की भाँति लपेटकर बांधे नहीं।
जो वस्त्र कांख में रस्सी की भाँति लपेट करके वैदिक कर्मों का अनुष्ठान करता है, उसके कर्म को राक्षस, दानव और दैत्य बड़े हर्ष में भरकर नष्ट कर डालते हैं; इसलिये सब प्रकार के प्रयत्न से कांख को वस्त्र से बांधना नहीं चाहिये। ब्राह्मण को चाहिये कि वस्त्र– धारण के पश्चात धीरे– धीरे हाथ और पैरों को मिट्टी से मलकर धो डाले, फिर गायत्री– मंत्र पढ़कर आचमन करे। तथा पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके एकाग्रिचत्त से वेदों का स्वाध्याय करे। जल में खड़ा हुआ द्विज जल में ही आचमन करके शुद्ध हो जाता है और स्थल में स्थित पुरुष स्थल में ही आचमन के द्वारा शुद्ध होता है, अत: जल और स्थल में कहीं भी स्थित होने वाले द्विज को आत्म शुद्धि के लिये आचमन करना चाहिये। इसके बाद संध्योपासन करने के लिये हाथों में कुश लेकर पूर्वाभिमुख हो कुशासन पर बैठे और मुझमें मन लगाकर एकाग्रभाव से प्राणायाम करे।
गायत्री जप करने का वर्णन
फिर एकाग्रिचत्त होकर एक हजार या एक सौ गायत्री– मंत्र का जप करे। मन्देह नामक राक्षसों का नाश करने के उद्देश्य से गायत्री– मंत्र द्वारा अभिमन्त्रित जल लेकर सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे। उसके बाद आचमन करके ‘उद्वर्गोसि’ इस मंत्र से प्रायश्चित के लिये जल छोड़े। फिर द्विज को चाहिये कि अंजलि में सुगन्धित पुष्प और जल लेकर सूर्य को अर्घ्य दे और आकाश मुद्रा का प्रदर्शन करे। तदनन्तर सूर्य के एकाक्षर– मंत्र का बारह बार जप करे और उनके षडक्षर आदि मंत्रों की छ: बार पुरनावृत्ति करे। आकाशमुद्रा को दाहिनी ओर से घुमाकर अपने मुख में विलीन करे। इसके बाद दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर एकाग्रचित्त से सूर्य की ओर देखते हुए उनके मण्डल में स्थित मुझ चार भुजाधारी तेजोमूर्ति नारायण का एकाग्रचित्त से ध्यान करे। उस समय ‘उदुत्यम्’[7], ‘चित्रं देवानाम’[8], ‘तच्चक्षु:[9]’ इन मंत्रों का, यथाशक्ति गायत्री– मंत्र का तथा मुझसे सम्बन्ध रखने वाले सूक्तों का जप करके मेरे साममन्त्रों और पुरुषसूक्त का भी पाठ करे।[10]
तत्पश्चात् ‘हंस: शुचिषत्’ इस मंत्र को पढ़कर सूर्य की ओर देखे और प्रदक्षिणा पूर्वक उन्हें नमस्कार करे। इस प्रकार संध्योपासन समाप्त होने पर क्रमश: ब्रह्मा जी का, मेरा, शंकर जी का, प्रजापति का, देवताओं और देवर्षियों का, अंग सहित वेदों, इतिहासों, यज्ञों और समस्त पुराणों का, अप्सराओं का, ऋतु– कलाकाष्ठारूप संवत्सर तथा भूत समुदायों का, भूतों का, नदियों और समुद्रों का तथा पर्वतों, उन पर रहने वाले देवताओं, ओषधियों और वनस्पतियों का जल से तर्पण करे। तर्पण के समय जनेऊ को बायें कंधे पर रखे तथा दायें और बायें हाथ की अंजलि से जल देते हुए उपर्युक्त देवताओं में से प्रत्येक का नाम लेकर ‘तृप्यताम’ पद का उच्चारण करे (यदि दो या अधिक देवताओं को एक साथ जल दिया जाय तो क्रमश: द्विवचन और बहुवचन– ‘तृप्येताम’ और तृन्यन्ताम’ इन पदों का उच्चारण करना चाहिये)।
विद्वान पुरुष को चाहिये कि मन्त्रद्रष्टा मरीची आदि तथा नारद आदि ऋषियों को निवीत होकर अर्थात जनेऊ को गले में माला की भाँति पहन करके एकाग्रचित्त से तर्पण करे। इसके बाद जनेऊ को दाहिने कंधे पर करके आगे बताये जाने वाले पितृ– सम्बन्धी देवताओं एवं पितरों का तर्पण करे। कव्यवाट, अग्नि, सोम, वैवस्वत, अर्यमा, अग्निष्वात्त और सोमप– ये पितृ– सम्बन्धी देवता हैं। इनका तिल सहित जल से कुशाओं पर तर्पण करे और ‘तृप्यताम्’ पद का उच्चारण करे। तदनन्तर पितरों का तर्पण आरम्भ करे।
उनका क्रम इस प्रकार है –पिता, पितामह और प्रपितामह तथा अपनी माता, पितामही और प्रपितामही! इनके सिवा गुरु, आचार्य, पितृष्वसा (बुआ), मातृष्वसा (मौसी), मातामही, उपाध्याय, मित्र, बन्धु, शिष्य, ऋत्विज और जाति– भाई आदि में से भी जो मर गये हों, उन पर दया करके ईर्ष्या- द्वेष त्यागकर उनका भी तर्पण करना चाहिये। तर्पण पश्चात आचमन करके स्नान के समय पहने हुए वस्त्र को निचोड़ डाले। उस वस्त्र का जल भी कुल के मरे हुए संतानहीन पुरुषों का भाग है। वह उनके स्नान करने और पीने के काम आता है। अत: उस जल से उनका तर्पण करना चाहिये, ऐसा विद्वानों का कथन है।
पूर्वोक्त देवताओं तथा पितरों का तर्पण किये बिना स्नान का वस्त्र नहीं धोना चाहिये। जो मोहवश तर्पण के पहले ही धौत वस्त्र को धो लेता है, वह ऋषियों और देवताओं को कष्ट पहुँचाता है। उस अवस्था में उसके पितर उसे शाप देकर निराश लौट जाते हैं, इसलिये तर्पण के पश्चात् आचमन करके ही स्नान– वस्त्र निचोड़ना चाहिये। तर्पण की क्रिया पूर्ण होने पर दोनों पैरों में मिट्टी लगाकर उन्हें धो डाले और फिर आचमन करके पवित्र हो कुशासन पर बैठ जाय और हाथों में कुशा लेकर स्वाध्याय आरम्भ करे। पहले वेद का पाठ करके फिर कम से उसके अन्य अंगों का अध्ययन करे। अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिदिन जो अध्ययन किया जाता है, उसको स्वाध्याय कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद का स्वाध्याय करे। इतिहास और पुराणों के अध्ययन को भी यथाशक्ति न छोड़े। स्वाध्याय पूर्ण करके खड़ा होकर दिशाओं, उनके देवताओं, ब्रह्मा जी, अग्नि, पृथ्वी, ओषधि, वाणी, वाचस्पति और सरिताओं को तथा मुझे भी प्रणाम करे। फिर जल लेकर प्रणवयुक्त ‘नमोभ्द्रय:’ यह मंत्र पढ़कर पूर्ववत् जल देवता को नमस्कार करे।[11]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-27
- ↑ ॐ आप: पुनंतु पृथ्वीं पृथ्वी पूता पुनातु माम्॥ पुनंतु ब्रह्मणस्पातिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम् यदुच्छिष्टमभोज्यं च यद्वा दुश्चरित मम्। सर्व पुनंतु मामपोऽसतां च प्रतिग्रह स्वाहा (तै. आ. प्र. 10।23)
- ↑ सदसस्पतिमद्भुम्प्रियभिंद्रस्य सनिम्मेधा मयासिषस्वाह (यजु. अ. 32 मं 13)
- ↑ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम। समूढ्मस्यापर सुरे स्वाहा
- ↑ ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुव:। ॐ ता न ऊर्जे दधातन। ॐ यो व: शिवतमो रस। ॐ तस्य भाजयतेह न:। ॐ उशतीरिव मातर:। ॐ तस्मा अरं गमाम व:। ॐ यस्य क्षयाय जिंवथ। ॐ आपो जनयथा च न:। (यजु.11 मं 50-52)
- ↑ ॐ ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्वात्तपसोऽध्यजायत तत: समुद्रो अर्णव:। समुद्रदर्णवादधिसंवत्सरोआजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो बशी। सूर्याचंद्रमसौ घाता यथापूर्वम्कल्पयत दिवञ्च पृथवीञ्चांतरिक्षमयो स्व:॥ (ऋ. अ. 8व. 48)
- ↑ ॐ उदु त्यं जातवेदस देवं वहन्ति केतव: दृशे विश्वाय सूर्यम्॥ (यजु. अ. 7 म. 41)
- ↑ ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुण्स्याग्ने: आप्रा द्यावापृथ्वी अंतरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्यस्थुषश्च्॥ (यजु. अ. 7म. 42)
- ↑ ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रम्। पश्येम शरद: शत जीवेम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-29
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-30
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