श्रीकृष्ण का अर्जुन से द्वारका जाने का प्रस्ताव

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 15 में श्रीकृष्ण का अर्जुन से द्वारका जाने का प्रस्ताव का वर्णन हुआ है।[1]

जनमेजय का प्रस्न

जनमेजय! ने पूछा- द्विजश्रेष्ठ! जब पाण्डवों ने अपने राष्ट्र पर विजय पा ली और राज्य में सब ओर शान्ति स्थापित हो गयी, उसके बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन इन दोनों वीरों ने क्या किया?

वैशम्पायन का संवाद

वैशम्पायन जी ने कहा- प्रजानाथ! नरेश्वर! जब पाण्डवों ने राष्ट्र पर विजय पा ली और सर्वत्र शान्ति स्थापित हो गयी, तब भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। स्वर्गलोक में विहार करने वाले दो देवेश्वरों की भाँति वे दोनों मित्र आनन्दमग्न हो विचित्र-विचित्र वनों में और पर्वतों के सुरम्य शिखरों पर विचरने लगे। पवित्र तीर्थों, छोटे तालाबों और नदियों के तटों पर विचरण करते हुए वे दोनों नन्दन वन में विहार करने वाले अश्विनीकुमारों के समान हर्ष का अनुभव करते थे। भरतनन्दन! फिर इन्द्रप्रस्थ में लौटकर महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन मयनिर्मित रमणीय सभा में प्रवेश करके आनन्दपूर्वक मनोविनोद करने लगे। पृथ्वीनाथ! वे दोनों महात्मा पुरातन ऋषिपुर नर और नारायण थे तथा आपस में बहुत प्रेम रखते थे। बातचीत के प्रसंग में वे दोनों मित्र सदा देवताओं तथा ऋषियों के वंशों की चर्चा करते थे और युद्ध की विचित्र कथाओं एवं क्लेशों का वर्णन किया करते थे। भगवान श्रीकृष्ण सब प्रकार के सिद्धान्तों को जानने वाले थे। उन्होंने अर्जुन को विचित्र पद, अर्थ एवं सिद्धान्तों से युक्त बड़ी विलक्षण एवं मधु कथाएँ सुनायीं। कुन्तीकुमार अर्जुन पुत्रशोक से संतप्त थे। सहस्रों भाई-बन्धुओं के मारे जाने का भी उनके मन में बड़ा दु:ख था। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण ने अनेक प्रकार की कथाएँ सुनाकर उस समय पार्थ को शान्त किया। महातपस्वी विज्ञानवेत्ता श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक अर्जुन को सांत्वना देकर अपना भार उतार दिया और वे सुखपूर्वक विश्राम सा करने लगे। बातचीत के अन्त मेें गोविन्द ने गुडाकेश अर्जुन को अपनी मधुर वाणी द्वारा सांत्वना प्रदान करते हुए उनसे यह युक्तियुक्त बात कही।

भगवान श्रीकृष्ण बोले- शत्रुओं को संताप देने वाले सव्यसाची अर्जुन! धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने तुम्हारे बाहुबल का सहारा लेकर इस समूची पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर ली। नरश्रेष्ठ! भीमसेन तथा नकुल-सहदेव के प्रभाव से धर्मराज युधिष्ठिर इस पृथ्वी का निष्कण्टक राज्य भोग रहे हैं। धर्मज्ञ! राजा युधिष्ठिर ने यह निष्कण्टक राज्य धर्मबल से प्राप्त किया है। धर्म से ही राजा दुर्योधन युद्ध में मारा गया। धृतराष्ट्र के पुत्र अधर्म में रुचि रखने वाले, लोभी, कटुवादी और दुरात्मा थे। इसलिये अपने सगे-सम्बन्धियों सहित मार गिराये गये। कुरुकुल तिलक कुन्तीकुमार! धर्मपुत्र पृथ्वीपति राजा युधिष्ठिर आज तुमसे सुरक्षित होकर सर्वथा शान्त हुई समूची पृथ्वी का राज्य भोगते हैं। शत्रुसूदन पाण्डुकुमार! तुम्हारे साथ रहने पर निर्जन वन में भी मुझे सुख और आनन्द मिल सकता है। फिर जहाँ इतने लोग और मेरी बुआ कुन्ती हों, वहाँ की तो बात ही क्या है? जहाँ धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, महाबली भीमसेन और माद्रीकुमार नकुल-सहदेव हों, वहाँ मुझे परम आनन्द प्राप्त हो सकता है।

श्रीकृष्ण का अर्जुन से द्वारका जाने का प्रस्ताव का वर्णन

निष्पाप कुरुनन्दन! इस सभा भवन के रमणीय एवं पवित्र स्थान स्वर्ग के समान सुखद हैं। यहाँ तुम्हारे साथ रहते हुए बहुत दिन बीत गये। इतने दिनों तक मैं अपने पिता शूरसेन कुमार वसुदेव जी का दर्शन न कर सका। भैया बलदेव तथा अन्यान्य वृष्णिवंश के श्रेष्ठ पुरुषों के भी दर्शन से वंचित रहा। अत: अब मैं द्वारकापुरी को जाना चाहता हूँ। पुरुषवर! तुम्हें भी मेरे इस यात्रा सम्बंधी प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार करना चाहिये।[1] शोकावस्था में मनुष्य का दु:ख दूर करने के लिए उसे जो कुछ उपदेश देना उचित हैं, वह भीष्म सहित हम लोगों ने विभिन्न स्थानों में राजा युधिष्ठिर को दिया है। उन्हें अनेक प्रकार से समझाया है। यद्यपि पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर हमारे शासक और शिक्षक हैं तो भी हम लोगों ने शिक्षा दी है और उन श्रेष्ठ महात्मा ने हमारी उन सभी बातों को भली-भाँति स्वीकार किया है। धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर धर्मज्ञ, कृतज्ञ और सत्यवादी हैं। उनमें सत्य, धर्म, उत्तम बुद्धि तथा ऊँची स्थिति आदि गुण सदा स्थिर भाव से रहते हैं। अर्जुन! यदि तुम उचित समझो तो महात्मा राजा युधिष्ठिर के पास चलकर उनके समक्ष मेरे द्वारका जाने का प्रस्ताव उपस्थित करो। महाबारो! मेरे प्राणों पर संकट आ जाय तब भी मैं धर्मराज का अप्रिय नहीं कर सकता, फिर द्वारका जाने के लिये उनका दिल दुखाऊँ, यह तो हो ही कैसे सकता है? कुरुनन्दन! कुन्तीकुमार! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ, मैंने जो कुछ किया या कहा है, वह सब तुम्हारी प्रसन्नता के लिये और तुम्हारे ही हित की दृष्टि से किया है। यह किसी तरह मिथ्या नहीं है।[2]

अर्जुन! यहाँ मेरे रहने का जो प्रयोजन था, वह पूरा हो गया है। धृतराष्ट्र का पुत्र राजा दुर्योधन अपनी सेना और सेवकों के साथ मारा गया। तात! पाण्डुनन्दन! नाना प्रकार के रत्नों के संचय से सम्पन्न, समुद्र से घिरी हुई, पर्वत, वन और काननों सहित यह सारी पृथ्वी भी बुद्धिमान धर्मपुत्र युधिष्ठिर के अधीन हो गयी। भरतश्रेष्ठ! बहुत से सिद्ध महात्माओं के संग से सुशोभित तथा वन्दीजनों के द्वारा सदा ही प्रशंसित होते हुए धर्मज्ञ राजा युधिष्ठिर अब धर्मपूर्वक सारी पृथ्वी का पालन करें। कुरुश्रेष्ठ! अब तुम मेरे साथ चलकर राजा को बधाई दो और मेरे द्वारका जाने के विषय में उनसे पूछकर आज्ञा दिला दो। पार्थ! मेरे घर में जो कुछ धन-सम्पत्ति है, वह और मेरा यह शरीर सदा धर्मराज युधिष्ठिर की सेवा में समर्पित है। परम बुद्धिमान कुरुराज युधिष्ठिर सर्वदा मेरे प्रिय और माननीय हैं। राजकुमार! अब तुम्हारे साथ मन बहलाने के सिवा यहाँ मेरे रहने का और कोई प्रयोजन नहीं रह गया है। पार्थ! यह सारी पृथ्वी तुम्हारे और सदाचारी गुरु युधिष्ठिर शासन में पूर्णत: स्थित है। पृथ्वीनाथ! उस समय महात्मा भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अमित पराक्रमी अर्जुन ने उनकी बात का आदर करते हुए बड़े दु:ख के साथ ‘तथास्तु’ कहकर उनके जाने का प्रस्ताव स्वीकार किया।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 15 श्लोक 1-21
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 15 श्लोक 22-35

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