विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीविकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैभावं न जानासि विलासिनीनाम्- मूर्ख हैं यह तो, छोड़ने का मतलब छोड़ना नहीं था। अभी क्या मालूम तुमको? गोपाल गोपालपंडितोऽसि अरे ग्वाले। अभी तुझे गाय चराना आता है, अभी तुझे श्रृंगार रस नहीं आता है। स्नेह रस दिया यशोदा मैया ने! पूछा, कितना माखन लेगा बेटा? बताने का ढंग ही न्यारा है। तो चाहे कैसे भी हो, काम हो कुब्जा की तरह, क्रोध हो शिशुपाल की तरह, भय हो कंस की तरह, सोते-उठते-जागते-चलते लड़खड़ाता था कंस, चौकन्ना रहता था, अपनी परछाईं देखकर कंस डरता था कि कहीं कृष्ण न आ गया हो। यदुवंशी लोग कहते थे कि कृष्ण हमारा है, पाण्डव लोग कहते थे कि हमारा संबंधी है। नारद कहते थे कि हमारा ईश्वर है। लेकिन फल क्या होता था? जिसके मन में जो भाव, कृष्ण के प्रति आया, तन्मयता आ गयी- यान्ति तन्मयतां हिते। अपने आपको भूल गये। तन्मय हो गये। इसलिए- न चैवं विस्मयः कार्यो भवता भगवत्यजे । इसलिए श्रीकृष्ण से प्रेम करके कोई अज्ञानी भी मुक्त हो गया, उनको प्यार समझकर मुक्त हो गया- जार समझकर मुक्त हो गया। श्रीधरस्वामी ने एक टिप्पणी जड़ी है इस प्रसंग में वे कहते हैं- जीवेषु आवृतं ब्रह्मत्वम्। ये जो जीव हैं, इनमें ब्रह्मत्व आवृत है, आवरण भंग नहीं हुआ है, परंतु कृष्णे तु अनावृतं ब्रह्मत्वं- श्रीकृष्ण में तो आवरण का प्रादुर्भाव भी नहीं हैं, उनमें पहले आवरण हुआ हो और भंग हुआ हो, ऐसा नहीं है, वे तो अनावृत ब्रह्म हैं। फिर जीवन्मुक्त और कृष्ण मुक्त में क्या फर्क? जीवन्मुक्त भी ब्रह्म है, परंतु जीवन्मुक्त में पहले आवरण था, ज्ञान से भंग हुआ तब उसने अपने को ब्रह्म जाना और कृष्ण में कभी आवरण हुआ ही नहीं- कृष्णे अनावृतं ब्रह्मत्वं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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