योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अट्ठाईसवाँ अध्याय
भीष्म की पराजय
भीष्म के पास से लौटने पर पाण्डवों ने यह निश्चय किया कि दूसरे दिन शिखंडी को ही युद्ध का सेनापति बनाकर धावा किया जाये। जब दूसरा दिन हुआ तो अर्जुन ने शिखंडी को ही अगुआ करके धावा कर दिया। भीष्म भी इस युद्ध मैं अर्जुन को कठोर आघात पहुँचाते रहे और दुर्योधन की सेना के अन्य शूरवीर लोग भी शिखंडी को लक्ष्य करके निशाने मारते रहे। महाभारत की शोध करने वाले व्यक्ति तो इस बात को पीछे की मिलावट ही मानते हैं क्योंकि यह समस्त वृत्तान्त पाठक को पूरा विश्वास नहीं दिलाता। प्रथम तो भीष्म जैसे दृढ़ प्रतिज्ञ व्यक्ति के लिए यह कब संभव था कि वह शत्रु को अपनी मृत्यु का उपाय बतलाकर दुर्योधन से विश्वासघात करता। भीष्म तो दुर्योधन के पक्ष में युद्ध की प्रतिज्ञा कर चुका था क्योंकि वह राजा धृतराष्ट्र का सभासद था और विपक्ष में उनके वंश-विरोधी महाराज पांचाल थे। अन्तःकरण से तो वह युधिष्ठिर के ही पक्ष में था और जानता था कि दुर्योधन और धृतराष्ट्र अधर्म पर हैं, परन्तु अपनी मानसिक इच्छाओं द्वारा वह उन कर्त्तव्यों को समूल नष्ट नहीं कर सकता था जो कौरव राज्य के प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित सभासद होने के संबंध से उस पर थे। इधर युधिष्ठिर को भी उसने राजा मान लिया था। न तो वह अपने राजा के विरोध में शस्त्र प्रहार करने में समर्थ था और न युद्ध से विमुख ही हो सकता था। इसके अतिरिक्त यह प्रकट है कि शिखंडी के रण में सामने आने पर भी भीष्म उस समय तक लड़ता रहा जब तक अर्जुन ने अपने बाणों की बौछार से प्रथम ही उसके सारथी को मार नहीं डाला। फिर उसके धनुष को भी गिरा दिया। भीष्म जो तीर निकालते, अर्जुन उनको भी काट डालता था। सशक्त होने पर भीष्म अपनी तलवार और ढाल लेकर रथ से उतरने लगा, कदाचित इस विचार से कि अब वह तलवार की लड़ाई लड़ेगा, परन्तु अर्जुन ने बाणों की लगातार वर्षा कर उसकी ढाल और तलवार भी हाथ से गिरा दी। यहाँ तक कि वृद्ध भीष्म नवयुवक अर्जुन के तीरों से अशक्त हो भूमि पर गिर पड़ा। उसके गिरते ही महाभारत की लड़ाई का प्रथम दृश्य समाप्त हो गया। बाणों की शैय्या पर पड़े हुए भीष्म ने दुर्योधन को मेल करने का उपदेश किया, परन्तु दुर्योधन कब मानने लगा। उसको अपनी सेना पर इतना भरोसा था कि भीष्म की पराजय के पश्चात भी उसको अपनी अन्तिम जय की पूरी आशा थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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