विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
दूसरा अध्याय
माधुर्यलीला
चतुर्थ प्रकरण
रासलीला
पूर्वार्ध[1]
गोपियों द्वारा विरहावस्था में की हुई स्तुति[2]
गोपियों के दीन वचन सुनकर श्रीकृष्ण मुसकाये, तदनन्तर उन्होंने उन गोपियों के साथ हास-विलास सहित क्रीड़ा की। यह समाज शुद्ध प्रेमियों का था। खुले वन में निवास, गौओं की सेवा और सीधी-सादी चाल-ढाल थी। व्रज तो साक्षात स्वर्ग ही था। आजकल के रहन-सहन की दृष्टि से उसे नहीं देखना चाहिए। बस, रासक्रीड़ा आरंभ हुई, खूब ऊँचे स्वर से गान होने लगा। गोपियाँ प्रेम से नाचने लगीं। इस प्रकार वहाँ अपूर्व आनन्द छा गया। धीरे-धीरे भगवान की समीपता पाकर गोपियों को यह गर्व हुआ कि भूतल की स्त्रियों में हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं। भगवान तो सर्वथा असंह हैं। उनकी जो लीला होती है केवल भक्तों के परितोष के लिए ही होती है। किन्तु वे भक्तों का गर्व नहीं देख सकते। उन्होंने देखा कि गोपियों को गर्व हो गया, अतः वे उसी समय अंतर्हित हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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