गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
बारहवां अध्याय
मंगलप्रभात आज तो बारहवें अध्याय का सार देना चाहता हूँ। [1] यह भक्तियोग है। विवाह के अवसर पर दंपती को पांच यज्ञों में इसे भी एक यज्ञ रूप से कंठ करके मनन करने को हम कहते हैं। भक्ति के बिना तथा कर्म शुष्क हैं और उनके बंधन रूप हो जाने की संभावना है। इसलिए भक्ति-भाव से गीता का यह मनन आरंभ करना चाहिए। अर्जुन ने भगवान से पूछा - साकार और निराकार को पूजने वाले भक्तों में अधिक श्रेष्ठ कौन है? भगवान ने उत्तर दिया - जो मेरे साकार रूप का श्रद्धा- पूर्वक मनन करते हैं, उसमें लीन होते हैं, वे श्रद्धालु मेरे भक्त हैं, पर जो निराकार तत्व का भजते हैं और उसे भजने के लिए समस्त इंद्रियों का संयम करते हैं, सब जीवों के प्रति समभाव रखते हैं, उनकी सेवा करते है, किसी को ऊँच-नीच नहीं गिनते, वे भी मुझे पाते हैं। इसलिए यह नहीं कह सकते कि दोनों में अमुक श्रेष्ठ है, पर निराकर की भक्ति शरीरधारी द्वारा संपूर्ण रूप से होना अशक्त माना जाता है, निराकार निर्गुण है, अत: मनुष्य की कल्पना से परे है। इसलिए सब देहधारी जाने-अनजाने साकार के ही भक्त हैं। सो तू तो मेरे साकार विश्व रूप में ही अपना मन पिरो। सब उसे सौंप दें। पर यह न कर सकता हो तो चित्त के विकारों को रोकने का अभ्यास कर, यानी यम- नियम आदि का पालन करके, प्राणायाम, आसन आदि की मदद लेकर, मन को वश में कर। ऐसा भी न कर सकता हो तो जो कुछ करता है, सो मेरे लिए करता है, इस धारणा से अपने सब काम कर तो मेरा मोह, तेरी ममता क्षीण होती जायगी और त्यों त्यों तू निर्मल शुद्ध होता जायगा और तुझमें भक्तिरस आ जायगा। यह भी न हो सकता हो तो कर्ममात्र के फल का त्याग करके यानि कल की इच्छा छोड़ दे। तेरे हिस्से में जो काम आ पड़े, उसे करता रह। फल का मालिक मनुष्य हो ही नहीं सकता। बहुतेरे अंगों के एकत्र होने पर तब फल उपजता है, अत: तू केवल निमित्त मात्र हो जाना। जो चार रीतियां मैंने बताई हैं, उनमें किसी को कमोवेश मत मानना। इनमें जो तुझे अनुकूल हो, उससे तू भक्ति का रस ले ले। ऐसा लगता है कि ऊपर जो यम-नियम, प्राणायाम, आसान आदि का मार्ग बता आये है, उनकी अपेक्षा श्रवण-मनन आदि ज्ञानमार्ग सरल हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गांधीजी ने यह अध्याय सबसे पहले लिखकर भेजा था। पर अध्याय क्रम के लिए यह यथास्थान दिया गया है।—संपा०
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज