विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
नवम् प्रकरण
देवकी के छः मृत पुत्रों का उद्धार
वसुदेवकृत स्तुति
हे अधोक्षज! अपने ही में आप ही उत्पन्न किये गये देव, पशु और मनुष्यादिरूप इस जगत् में अंतर्यामीरूप से स्वयं प्रवेश करके जन्मादि विकाररहित होते हुए भी आप (क्रियाशक्ति रूप) प्राण और (ज्ञान शक्तिरूप) जीव होकर इसका धारण और पोषण करते हैं।।5।। (शंका- यदि प्राणादि की विचित्र शक्तियाँ ही कारण हैं तो कारण होने से परमेश्वर को सर्वात्मक कैसे कहते हो? समाधान- प्राणादि का भी कारण परमेश्वर ही है) जगत को उत्पन्न करने वाले प्राणादि की जो शक्तियाँ हैं वह परमेश्वर की ही हैं, क्योंकि प्राणादि परतंत्र हैं- (जैसे बाण में स्वतः लक्ष्यवेधनशक्ति नहीं है किन्तु उसमें जो वेधनशक्ति आती है वह बाण चलाने वाले पुरुष की है। शंका-परमेश्वर के समान प्राण भी स्वतंत्र क्यों न समझा जाय? अर्थात भगवान और प्राणवर्ग को स्वतंत्र ही क्यों न समझा जाय? समाधान- ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि) दोनों में समानता नहीं है, प्राण जड़ है और ईश्वर चेतन है, इस कारण प्राण स्वतंत्र नहीं है, चेतन भगवान के अधीन है (शंका- प्राणादि में शक्ति न होने से उनमें क्रिया कैसे आती है? समाधान-) चेष्टा करने वाले की ही उनमें शक्ति होती है जैसे वायु की शक्ति से तिनके उड़ते हैं और मनुष्य की शक्ति से बाण में वेग आता है।।6।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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