गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
8.भगवान् और संभूति–शक्ति
यद्यपि हम इस संसार में बहुत-सी वस्तुओं को इच्छा या अनिच्छापूर्वक स्वीकृत देते हैं तथा जगत में भगवान को स्वीकार करते हैं। तथापि क्या अधिकतर वस्तुओं के सामने मन को ‘‘यह नहीं, यह नहीं’’ को उस पुकर में ही नहीं डटे रहना होगा? यहाँ निरंतर ही बुद्धि की स्वीकृति, संकल्पशक्ति की सहमति और हृदय की श्रद्धा दृग्विषय और बाह्य रूप पर ही और आप स्वयं भी मुझे ये बताते हैं सदा लंगर डाले हुऐ मानव-मन के लिए कठिन हो जाती है एकत्व की प्राप्ति के कठिन प्रयास के लिये कम-से-कम कुछ प्रबल संकेतों, कुछ श्रृंखलाओं और सेतुओं, कुछ अवलबों की आवश्यकता पड़ती है। यद्यपि अर्जुन ‘सर्व’ के रूप में वासुदेव के प्राकट्य को स्वीकार करता है और यद्यपि उसका हृदय इसके आनंद से परिपूर्ण है,-क्योंकि वह पहले से ही अनुभव कर रहा है कि यह उसे विरोधमय जगत् की चकराने वाली समस्याओं के बीच किसी सूत्र किंवा मार्ग- दर्शक सत्य के लिये पुकार करने वाले हैं उसके मन की व्याकुलता और स्खलनकारी विभेदों से मुक्त कर रहा है, और यह उसके कानों के लिये अमृतरस, अमृतम् है,-फिर भी वह ऐसे अवलंबों और संकेतों को प्राप्त करने की आवश्यकता अनुभव करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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