गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 19.त्रिगुण,मन और कर्म[1]
हमें उसके संक्षिप्त वर्णनों का अनुसरण करते हुए इन चीजों का निरूपण संक्षेप से ही करना होगा और विस्तार केवल उतना ही करना होगा जितना प्रधान विचार को पूर्ण रूप से हृदयंगम करने के लिये आवश्यक हो; क्योंकि ये गौण वस्तुएं हैं परंतु फिर भी प्रत्येक अपने स्थान में तथा अपने प्रयोजन के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। त्रिगुण के विशिष्ट सांचे में ढली हुई इनकी जो क्रिया होती है उसी को हमें मूल के संक्षिप्त वर्णनों में से बाहर निकालकर प्रकट करना है; गुणों से परे इनमें से कियी की या प्रत्येक की परिणति का क्या स्वरूप होगा यह सामान्य त्रिगुणातीत अवस्था के स्वरूप से स्वयमेव स्पष्ट हो जायेगा। विषय के इस अंश की चर्चा अर्जुन के एक अंतिम प्रश्र के द्वारा आरंभ की गयी है जिसमें वह पूछता है कि संन्यास और त्याग का क्या तत्त्व है तथा इनमें भेद क्या है। गीता ने जो इस महत्त्वपूर्ण भेद का राग पुनः-पुनः अलापा है, इसपर जो बारंबार बल दिया गया है उसका औचित्य परवर्ती भारतीय मन के उत्तरकालीन इतिहास के द्वारा यथेष्ट रूप से प्रमाणित होता है, क्योंकि वहाँ हम देखते हैं कि भारतीय मन इन दो अत्यंत विभिन्न चीजों में लगातार गड़बड़ घोटाला करता आया है और गीता ने जिस भी प्रकार के कर्म की शिक्षा दी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18.1-39
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज