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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
इस प्रकार दिव्य गुरु ने शिष्य के सम्मुख उसके कर्म और संग्राम के क्षेत्र में शिक्षा और योग का सार प्रकट कर दिया है और अब उसके कर्म पर लागू करने की ओर अग्रसर होते हैं, पर ऐसे ढंग से जिससे यह हमारे सभी कर्मों पर लागू किया जा सकता है। एक चरम दृष्टांत से संबद्ध होने और कुरुक्षेत्र के नायक से कहे जाने के कारण ये शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ रखते हैं और जो लोग भी साधारण मन से ऊपर उठने तथा उच्चतम आध्यात्मिक चेतना में निवास और कर्म करने के लिये तैयार हैं उन सभी के लिये ये एक सार्वभौम नियम है। अहं और व्यक्तिगत मन के घेरे को तोड़कर उससे बाहर निकल जाना और प्रत्येक चीज को आत्मा को अपना सर्वस्व समर्पित कर देना, भगवच्चेतना को अधिकृत करना तथा उसके द्वारा अधिकृत होना, प्रेम आनंद संकल्प और ज्ञान की विश्व-व्यापकता में उन एकमेवाद्वितीय के साथ एकमय होना, उनके अंदर सभी जीवों के साथ तादात्म्य प्राप्त करना, जहाँ सब कुछ भगवान ही हैं ऐसे जगत की दिव्य आधारशिला पर तथा मुक्त आत्मा की दिव्य स्थिति में आराधना और यज्ञ के रूप कर्म करना-यही है गीता के योग का तात्पर्य। यह है हमारी सत्ता के दृश्यमान सत्य से उसके परम आध्यात्मिक और वास्तविक सत्य में संक्रमण। और, भेदात्मक चेतना की अनेक सीमाओं को दूर कर और विषय-वासना, वेवलता एवं अज्ञान के प्रति, न्यूनतर प्रकाश और ज्ञान तथा पाप और पुण्य के प्रति, निम्नतर द्वंद्वात्मक विधान और आदर्श के प्रति मन की आसक्ति का परित्याग करके ही मनुष्य उस सत्य में प्रवेश कर सकता है।
अतएव, श्री गुरु कहते हैं अपने आपको सर्वात्मना मेरे प्रति अर्पित करके, अपने सचेतन मन में अपने सभी कर्म मुझपर उत्सर्ग करके, संकल्प और बुद्धि के याग का आश्रय लेकर, अपने हृदय और चेतना में सदा मेरे साथ एक होकर रह। यदि तू सदा-सर्वदा मच्चित रहेगा तो मेरी कृपा से सब कठिन और संकटपूर्ण मार्गों को सूरक्षित रूप से पार कर जायेगा पर यदि तू अहंकारवश नहीं सुनेगा तो तू विनष्ट हो जायेगा। तू अपने अहंकार का आश्रय लेकर यूं सोचता है कि मैं नही करूंगा तेरा यह निश्चय मिथ्या है प्रकृति तुझे तेरे कर्म में नियुक्त करेगी। जो तू मोहवश नहीं करना चाहता, वही तू अपने स्वभावज कर्म से बंधा हुआ अवश होकर करेगा।
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