गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द13.यज्ञ के अधीश्वर
सब प्रकृति का ही प्राकट्य-कर्म है और प्रकृति भगवान् की वह शक्ति है जो अपने कर्मों के स्वामी और अपने रूपों के अंतर्यामी भागवत पुरुष की चेतना और इच्छा को ही कार्य में परिणत किया करती है। उसी अतंर्यामी की प्रसन्नता के लिये वह नामरूप की लीला में और प्राण तथा मन के कर्मों मे अवतीर्ण होती है और फिर मन-बुद्धि और आत्म-ज्ञान के द्वारा वह उस आत्मा को सचेतन रूप से पुनः कर प्राप्त लेती है जो उसके अंदर निवास करती है। पहले आत्मा, जो कुछ भी वह है तथा नामरूपात्मक विकास से उसका जो कुछ भी अभिप्राय है वह सब, प्रकृति में समा जाता है; इसके बाद आत्मा का विकास होता है, अर्थात् वह जो कुछ है, उसका जो अभिप्राय है, और जो छिपा हुआ है, पर नामरूपात्मक सृष्टि जिसकी सूचना करती है, वह सब प्रकट होता है। प्रकृति का यह चक्र कभी संभव न होता यदि पुरुष अपनी तीन शाश्वत अवस्थाओं को एक साथ धारण करके बनाये न रखता, क्योंकि प्रत्येक अवस्था इस कर्म की समग्रता के लिये आवश्यक है। पुरुष का क्षररूप में अपने-आपको प्रकट करना अपरिहार्य है, और हम दीखते हैं कि क्षर-रूप में पुरुष परिच्छिन्न है, अनेक है, सर्वभूतानि है। अब हम उसे अनंत वैचित्र्य और नानाविध संबंधों से युक्त असंख्य प्राणियों के परिच्छिन्न व्यक्तित्व के रूप में देखते हैं, फिर हमें वह इन सब प्रणियों के पीछे होने वाले देवताओं की क्रियाओं के मूलतत्त्व और उनकी शक्ति के रूप में दिखायी देता है-अर्थात् भगवान् की उन विश्वशक्तियों और गुणों के रूप में जिनके द्वारा जगत्-जीवन संचालित होता है और जहाँ हमें वह एक सत्ता अपने विविध विश्वरूपों में दिखायी देती है, अथवा हो सकता है कि एक ही परम पुरुष की विभूति के ये विविध आत्म-आविर्भाव हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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