गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द9. सांख्य, योग और वेदांत
सांख्य और योग के बीच गीता जो भेद बताती है, वह यही है। इन दो परस्पर-विरोधी सिद्धांतों का कोई समन्वय संभव भी है, यह समझना अर्जुन के लिये जो कठिन प्रतीत हुआ, इसी से यह सूचित होता है कि उस समय के लोग इन दो पद्धतियों को साधारणतया कितना विभिन्न मानते थे। गुरु कर्म और बुद्धियोग का मिलाप कराते हुए अपना कथन आरंभ करते हैं। भगवान् कहते हैं, निरे कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग बहुत अधिक श्रेष्ठ है, बुद्धियोग के द्वारा, ज्ञान के द्वारा, मनुष्य जब रहित ब्राह्मी-स्थति की पवित्रता और समता को प्राप्त हेाता है तभी वह दान कर्मों को कर सकता है, जो भगवत्स्वीकार्य हो सकते हैं फिर भी कर्म मुक्ति के साधन है, किंतु वे ही कर्म जो इस प्रकार ज्ञान से विशुद्ध हुए हों। अर्जुन में उस समय की प्रचलित संस्कृति के विचार भरे हुए थे और इधर गुरु ने वैदांतिक सांख्य की जिन बातों पर जोर दिया अर्थात् इन्द्रियों पर विजय, मन से हटकर आत्मा में निवास, ब्राह्मी स्थिति में आरोहण, अपने निम्न व्यक्तित्व का निर्व्यक्तितत्त्व में लय-योग के मुख्य विचार अभीतक गौण और अप्रकट हैं-इनसे अर्जुन की बुद्धि चकरा गयी। उसने पूछा कि, “ यदि आपका यह मत है कि कर्म की अपेक्षा बुद्धियोग ही श्रेष्ठ है तो मुझे इस घोर कर्म में क्यों नियुक्त करते हैं? आप अपनी व्यामिश्र बातों से मेरी बुद्धि को मोहित किये डालते हैं; निश्रित रूप से एक बात कहिये जिससे मैं श्रेय को प्राप्त कर संकू।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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