गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द14.दिव्य कर्म का सिद्धांत
अपने निम्नतर व्यष्टिबद्ध पुरुष -भाव का नैर्व्यक्तिक ब्रह्म में लय करके हम अंत में उन परम पुरुष के साथ एकत्व लाभ करते हैं जो पृथक व्यक्ति या व्यष्टिभाव न होते हुए भी सब व्यष्टियों का अभिनय करते हैं। त्रिगुणात्मिका अपरा प्रकृति को पार कर अंतरात्मा को त्रिगुणातीत अक्षर पुरुष में स्थित करके हम अंत में उन अनंत परमेश्वर की परा प्रकृति में पहुँच सकते हैं जो प्रकृति द्वारा कर्म करते हुए भी त्रिगुंण में आबद्ध नहीं होते। शांत पुरुष के आंतर नैष्कर्म्य को प्राप्त होकर और प्रकृति को अपना काम करने के लिये स्वतत्र छोड़कर हम कर्मो के परे उस परम पद को, उस दिव्य प्रभुत्व को प्राप्व्त कर सकते हैं जिसमें सब कर्म किये जा सकते हैं पर बंधन किसी का नहीं होता। इसलिये पुरुषोत्तम की भावना ही, जो पुरुषोत्तम यहाँ अवतीर्ण नारायण, कृष्ण रूप में दिखाई देते हैं। इसकी कुंजी हैं। इस कुंजी के बिना निम्न प्रकृति से निवृत्त हाकेर ब्राह्मी स्थिति में चले जाने का अर्थ होगा मुक्त पुरुष का निष्क्रिय, और जगत् के कर्मों से उदासीन हो जाना; और इस कुंजी के होने से यही अलग होना, यही निवृत्ति एक ऐसी प्रगति हो जाती है। जिससे जगत् के कर्म भगवान् के स्वभाव के साथ, भगवान् की स्वतत्र सत्ता में, आत्मा के अदंर ले लिये जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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