गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द4.उपदेश का कर्म
कारण इस विषय में मनुष्य की बुद्धि अपना दोष आप ही ढूंढ़ निकालने की सावधानी सदा रख सकने में असमर्थ होती है; उसका स्वभाव ही किसी एकतरफा सिद्धांत, विचार या तत्त्व ग्रहण कर उसी का मंडन करने और उसी को संपूर्ण सत्य के पाने की कुंजी बना लेना होता है और इस स्वभाव में अपने-आपको बढ़ाने की वृत्ति होती है जिसका कोई अंत नहीं है। अर्थात् मनुष्य बुद्धि में यह स्वरूपगत और पालित-पोषित दोष है, अपने कार्य में इस दोष को ढूंढ़ निकालने से इसकी दृष्टि फिरी रहती है। गीता के संबंध में इस प्रकार की गलती सहज रूप से होती है, क्योंकि इसके किसी भी एक पहलू को लेकर उसी पर खास जोर देकर अथवा इसकी किसी खास जोरदार श्लोक को लेकर उसी को आगे बढ़ाकर अठारहों अध्यायों को पीछे धकेलकर या उन्हें गौण और सहायक रूप करार देकर गीता को अपने ही मत या सिद्धांत का पोषक बना लेना आसान है। इस प्रकार कुछ लोगों का कहना है कि गीता में कर्म-योग का प्रतिपादन ही नहीं है, बल्कि वे इसकी शिक्षा को संसार और सब कर्मों के संन्यास के लिये तैयार करने वाली एक साधना मानते हैं; नियत कर्मों को अथवा जो कोई कर्म आमने सामने आ पड़े उसको उदासीन होकर करना ही साधन या साधना है; संसार और सब कर्मों का अंत में संन्यास ही एकमात्र साध्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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