गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
10.विश्वरूपदर्शन
संहारक काल
विश्व-पुरुष का दर्शन गीता के उन सुप्रसिद्ध प्रकरणों में से है जो अत्यंत ओजस्वी रूप में काव्यमय हैं, परंतु गीता की विचारधारा में इसका स्थान पूर्ण रूप से प्रकट नहीं है। स्पष्ट ही यह एक काव्यात्मक तथा सत्योद्भासक प्रतीक के रूप में अभिप्रेरत है और इसके आशय को ग्रहण कर सकने के पूर्व हमें देखना होगा कि इसका सूत्रपात कैसे तथा किस प्रयोजन से किया गया है, साथ ही यह भी जानना होगा कि अपने अर्थगर्भित रूपों में यह किस बात की ओर संकेत करता है। अगोचर भगवान् की जीवंत प्रतिमा तथा प्रत्यक्ष महिमा को, जगत का संचालन करने वाले परम आत्मा और शक्ति के साक्षत् विग्रह को देखने की इच्छा से अर्जुन ने ही इसके लिये प्रार्थना की है। उसने सत्ता के इस सर्वोच्च अध्यात्मिक रहस्य को सुन लिया है कि सब कुछ भगवान् से उत्पन्न हुआ है तथा सब कुछ भगवान् है और सभी चीजों में भगवान् निवास करते तथा गुप्त रूप से विद्यमान हैं और प्रत्येक सांत दृश्यवस्तु में उन्हें प्रकट किया जा सकता है। वह भ्रम जो मनुष्य के मन तथा इन्द्रियों को इतनी दृढ़ता से अनेक अधिकार में रखता है, अर्थात् यह धारणा कि वस्तुएं ईश्वर से पृथक् अपने-आपमें या अपने लिये अस्तित्व रखती हैं, अथवा प्रकृति के अधीन रहने वाली कोई भी वस्तु स्वयमेव प्रेरित तथा परिचालित हो सकती है, उससे दूर हो गयी है,-यही उसके संदेह एवं व्यामोह का तथा कर्म से इंकार करने का कारण था। अब उसे पता लग गया है कि भूतों के जन्म और मरण का क्या अभिप्राय है। उसे मालूम हो गया है कि दिव्य चिन्मय आत्मा का अक्षय माहात्म्य ही इस सब दृश्य-प्रपंच का रहस्य है। यह सब कुछ वस्तुओं में विद्यमान इन महान् सनातन परमात्मा का योग है और सभी घटनाएं उस योग का परिणाम तथा प्रकट्य है; समस्त प्रकृति निगूढ़ भगवान् से परिपूर्ण है और अपने अंदर उसीको प्रकाशित करने का कठिन प्रयास कर रही है। परंतु यदि सजीव हो तो, वह इन परमेश्वर के साक्षात् रूप तथा विग्रह को भी देखना चाहता है। वह उनके गुणों का श्रवण कर चुका है तथा उनके आत्म-प्रकटीकरण के सोपानों तथा तरीकों को समझ चुका है; परंतु अब वह इन योगेश्वर से कहता है कि मेरे योग-चक्षु के सम्मुख अपनी उस वास्तविक अव्यय आत्मा को प्रकाशमय कीजिये। स्पष्ट ही उसका अभिप्राय उनके निष्कर्म अक्षरभाव की निराकार नीरवता से नहीं बल्कि उन पुरुषोत्तम से है जिसे समस्त शक्ति एवं कर्म उद्भूत होता है, सभी रूप जिनके आवरण हैं जो विभूति में अपनी शक्ति प्रकाशित करते हैं जो कर्मों के स्वामी, ज्ञान और भक्ति के स्वामी, प्रकृति और उसके समस्त प्राणियों के परमेश्वर हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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