गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द23.निर्वाण और संसार में कर्म
इसका अर्थ है मानवजीवन की ओर भगवान् की चेतना तथा कर्मण्यता में जो भेद है, जिसके कारण क्षर भाव की लीला संभव होती है, उसे नष्ट कर देना; क्योंकि तब क्षर पुरुष का कर्म केवल अज्ञान का खेल रह जायेगा और उसके मूल में या उसके आधारस्वरूप कोई भागवत सद्वस्तु नहीं रहेगी। इसके विपरीत, योग के द्वारा पुरुषोत्तम के साथ एक होने का अर्थ होता है अपनी स्वतःस्थित सत्ता में उनके साथ एकत्व का ज्ञान और आस्वादन तथा अपनी क्रियाशील सत्ता में इनके साथ एक विशेष प्रकार के भेदभाव का ज्ञान और आस्वादन। दिव्य प्रेम की प्रेरक-शक्ति द्वारा परिचालित और संसिद्ध दिव्य प्रकृति द्वारा अनुष्ठित दिव्य कर्मों की लीला में सक्रिय सत्ता और पुरुषोत्तम के बीच उपर्युक्त विशेष प्रकार के भेदभाव का बना रहना तथा आत्मा के अंदर भगवान् की उपलब्धि के साथ-साथ जगत् में भगवान् का दर्शन, इन दो कारणों से ही मुक्त पुरुष के लिये कर्म और भक्ति करना संभव होता है, केवल संभव ही नहीं, बल्कि उसके सिद्ध स्वभाव के लिये अपरिहार्य होता है। परन्तु पुरुषोत्तम के साथ एकता स्थापित करने का सीधा रास्ता अक्षर ब्रह्म की सदृढ़ अनुभूति में से होकर ही है, और इस बात पर गीता ने बहुत जोर दिया है और कहा है कि यह जीव की पहली आवश्यकता है,-और इसे प्राप्त कर लेने के बाद ही कर्म और भक्ति अपने परम दिव्यायर्थ को प्राप्त होंगे-इसी कारण हम गीता के आशय को समझने में भूल कर जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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