गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 225

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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द

23.निर्वाण और संसार में कर्म


ज्ञानमार्ग का अनुसरण करने वाले संकीर्ण सिद्धांत की तरह केवल अक्षर पुरुष के साथ एक हो जाना ही नहीं, अपितु समग्र सत्ता के योग द्वारा जीव का पुरुषोत्तम के साथ एक हो जाना गीता की संपूर्ण शिक्षा है। यही कारण है कि ज्ञान औार कर्म का समन्वय साधने के पश्चात् गीता ने कर्म और ज्ञान से युक्त प्रेम और भक्ति की भावना का विकास करके बतलाया है कि जिस मार्ग के द्वारा उत्तम रहस्य तक पहुँचा जा सकता है उसकी सर्वोच्च भूमि यही है। यदि अक्षर पुरुष के साथ एक हो जाना ही एकमात्र रहस्य या परम रहस्य होता तो कर्म और ज्ञान से युक्त प्रेम और भक्ति का साधना संभव न होता, क्योंकि जब साधना में एक ऐसी अवस्था आ जाती जब प्रेम और भक्ति के लिये हमारा आंतरिक आधार कर्म के आंतरिक आधार के समान चूर-चूर होकर ढह जाता। केवल अक्षर पुरुष के साथ संपूर्ण और अन्य एकता का अर्थ होता है क्षर पुरुष के दृष्टिबिंदु को सर्वथा नष्ट कर देना। यह, सामान्य और हीनतर कर्म में क्षर पुरुष की सत्ता के दृष्टिबिंदु को नष्ट करना ही नहीं है, बल्कि स्वयं उसके मूल से, जो कुछ उसकी सत्ता को संभव बनाता है उस सबसे भी, इंकार करना है; यह केवल उसकी अज्ञानावस्था के कर्म से ही नहीं, प्रत्युत उसकी ज्ञानावस्था के कर्म से भी इंकार है।

इसका अर्थ है मानवजीवन की ओर भगवान् की चेतना तथा कर्मण्यता में जो भेद है, जिसके कारण क्षर भाव की लीला संभव होती है, उसे नष्ट कर देना; क्योंकि तब क्षर पुरुष का कर्म केवल अज्ञान का खेल रह जायेगा और उसके मूल में या उसके आधारस्वरूप कोई भागवत सद्वस्तु नहीं रहेगी। इसके विपरीत, योग के द्वारा पुरुषोत्तम के साथ एक होने का अर्थ होता है अपनी स्वतःस्थित सत्ता में उनके साथ एकत्व का ज्ञान और आस्वादन तथा अपनी क्रियाशील सत्ता में इनके साथ एक विशेष प्रकार के भेदभाव का ज्ञान और आस्वादन। दिव्य प्रेम की प्रेरक-शक्ति द्वारा परिचालित और संसिद्ध दिव्य प्रकृति द्वारा अनुष्ठित दिव्य कर्मों की लीला में सक्रिय सत्ता और पुरुषोत्तम के बीच उपर्युक्त विशेष प्रकार के भेदभाव का बना रहना तथा आत्मा के अंदर भगवान् की उपलब्धि के साथ-साथ जगत् में भगवान् का दर्शन, इन दो कारणों से ही मुक्त पुरुष के लिये कर्म और भक्ति करना संभव होता है, केवल संभव ही नहीं, बल्कि उसके सिद्ध स्वभाव के लिये अपरिहार्य होता है। परन्तु पुरुषोत्तम के साथ एकता स्थापित करने का सीधा रास्ता अक्षर ब्रह्म की सदृढ़ अनुभूति में से होकर ही है, और इस बात पर गीता ने बहुत जोर दिया है और कहा है कि यह जीव की पहली आवश्यकता है,-और इसे प्राप्त कर लेने के बाद ही कर्म और भक्ति अपने परम दिव्यायर्थ को प्राप्त होंगे-इसी कारण हम गीता के आशय को समझने में भूल कर जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

गीता प्रबंध -अरविन्द
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
भाग-1
1. गीता से हमारी आवश्यकता और मांग 1
2. भगवद्गुरु 9
3. मानव-शिष्य 17
4. उपदेश का सारमर्म 26
5. कुरुक्षेत्र 37
6. मनुष्य और जीवन-संग्राम 44
7. आर्य क्षत्रिय-धर्म 56
8. सांख्य और योग 68
9. सांख्य, योग और वेदांत 80-81
10. बुद्धियोग 92
11. कर्म और यज्ञ 102
12. यज्ञ-रहस्य 110
13. यज्ञ के अधीश्वर 119
14. दिव्य कर्म का सिद्धांत 128
15. अवतार की संभावना और हेतु 139
16. भगवान की अवतरण-प्रणाली 152
17. दिव्य जन्म और दिव्य कर्म 161
18. दिव्य कर्मी 169
19. समत्व 180
20. समत्व और ज्ञान 192
21. प्रकृति का नियतिवाद 203
22. त्रैगुणातीत्य 215
23. निर्वाण और संसार में कर्म 225
24. कर्मयोग का सारतत्त्व 238
भाग-2
खंड-1
1. दो प्रकृतियां 250
2. भक्ति-ज्ञान-समन्वय 262
3. परम ईश्वर 272
4. राजगुह्य 284
5. भवदीय सत्य और मार्ग 294
6. कर्म, भक्ति और ज्ञान 305
7. गीता का महावाक्य 320
8. भगवान की संभूति–शक्ति 337
9. विभूति का सिद्धांत 348
10. विश्वरूप-दर्शन 360
11. विश्वपुरुष–दर्शन 372
12. मार्ग और भक्त 380
खंड-2
13. क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 391
14. त्रैगुणातीत 403
15. तीन पुरुष 417
16. आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता 433
17. देव और असुर 449
18. त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म 463
19. त्रिगुण,मन और कर्म 482
20. स्वभाव और स्वधर्म 497
21. परम रहस्य की ओर 518
22. परम रहस्य 533
23. गीता का सारमर्म 558
24. गीता का संदेश 570
25. अंतिम पृष्ठ 597

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