गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य
मनुष्य जो मानस-जीव है, अपने सीमित मन के रास्ते से असीम अनंत की ओर चलता है और इसलिये उसे अनंत की ओर इसी सीमित के समीप का कोई द्वार खोलना पड़ता है। वह कोई ऐसी भावना ढूंढ़ता है जिसे बुद्धि पकड़ सके, अपनी प्रकृति की किसी ऐसी शक्ति को चुन लेता है जो अपने ही निर्बाध उन्नतिसाधक बल से उस अनंत सत्य तक पहुँच जाये और उसे छू ले जो स्वयं उसकी बुद्धि की ग्रहणशक्ति के परे है। उस अनंत सत्य के तो असंख्य रूप, असंख्य वाचक शब्द और असंख्य आत्मसंकेत हैं। वह इन्हीं मे से किसी एक रूप को देखने का प्रयास करता है जिसमें उसीकी भक्ति करके प्रत्यक्ष अनुभूति के द्वारा उस अप्रमेय सत्य को पा ले जिसका यह एक प्रतीक है। यह द्वार चाहै कितना ही तंग क्यों न हो, यदि यह उसे आकर्षित करने वाली विशालता को प्राप्त होने की कुछ भी आशा दिलाता है, यदि उसकी आत्मा को पुकारनेवाले ‘तत्’ की अथाह गंभीरता और अगम्य उच्चता के रास्ते पर उसे ला खड़ा करता है तो इतने से उसे संतोष हो जाता है। और वह जिस तरह उसकी ओर आगे बढ़ता है, उसी तरह वह उसे ग्रहण कर लेता है। दार्शनिक बुद्धि अपकर्षक निरपेक्ष तात्विक ज्ञान के द्वारा सनातन को प्राप्त होने का प्रयास करती है। ज्ञान का कर्म बुद्धि के द्वारा ग्रहण करना और सीमित बुद्धि के लिये इसका अर्थ होता है लक्षण करना और निर्धारित करना। परंतु अनिधार्य को निर्धारित करने का एकमात्र मार्ग किसी-न-किसी प्रकार का सार्वत्रिक निषेध अर्थात् ‘‘नेति नेति” ही होता है। इसलिये बुद्धि सनातन-संबंधी जो कोई कल्पना करती है उसमें से उन सब चीजों को हटाती चलती है जो इन्द्रियों और हृदय तथा बुद्धि द्वारा सीमित होने वाली प्रतीत होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज