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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
सातवें अध्याय में जो कुछ कहा जा चुका है उससे हमारी नवीन पूर्णतर भूमिका की तैयारी होती है और इसकी असंदिग्धता भी यथेष्ट रूप से स्थापित हो जाती है। तात्पर्यरूप से बात यह आती है कि हमें अंतर्मुख होकर एक महान् चैतन्य और एक परम भाव की ओर, विश्व-प्रकृति का सर्वथा त्याग करके नहीं बल्कि हम इस समय वास्तविक रूप में जो कुछ हैं उसकी उच्च स्तर की अर्थात् आध्यात्मिक पूर्णता साधित करके, चलना है। हमें मर्त्य जीवन की अपूर्णता को परिवर्तित करके अपने स्वरूप की दिव्य पूर्णता सिद्ध करनी है। इस पूर्णता की संभावना जिस भावना के आधार पर की जाती है वह प्रथम भावना यही है कि मनुष्य के अंदर व्यष्टि-जीव अपने सानातन स्वरूप और मूल शक्ति के हिसाब से परमात्मा परमेश्वर की ही एक किरण है और उसीका यहीं छिपा हुआ अविर्भाव है, उसीकी सत्ता का एक सत्स्वरूप, उसीकी चेतना की एक चेतना और उसीके स्वभाव का एक स्वभाव है, पर वह इस मनोमय और अन्नमय जगत् के अंधकार में, अपने उद्गम और अपने सत्स्वरूप और सत्स्वभाव को भूला हुआ है। दूसरी भावना है तन-मन प्राणरूप् से आविर्भूत जीव की द्विविध प्रकृति की-एक है मूल प्रकृति जिसमें यह अहंकार और अज्ञान की भ्रामक-परंमपरा के अधीन हैं इस दूसरी को त्यागकर अंतर्मुख होकर असली अध्यात्म-प्रकृति को प्राप्त करना, उसीको पूर्ण करना, उसे सशक्तिक और कर्मशील बनाना होता है। एक आंतरिक आत्म-पूर्णता, एक नवीन स्वरूप-स्थिति प्राप्त कर, एक नयी शक्ति में जन्म लेकर हम अध्यात्म-प्रकृति में लौट आते और फिर से उन परमेश्वर का एक अंश बनते हैं जिनसे हम इस मर्त्य शरीर में आये हैं।
यहाँ उस समय के प्रचलित भारतीय विचार के साथ एक अंतर है, यह उतना निषेधात्मक नहीं बल्कि अधिक स्वीकारात्मक है यहाँ प्रकृति के आत्मविलोपन के अभिभूत करने वाले विचार की जगह एक अधिक विस्तृत और श्रेष्ठ समाधान मिलता है, यह है प्रकृति में आत्म-परिपूर्ण का सिद्धांत। इसमें, गीता के बहुत पीछे भक्ति- संप्रदायों की जो वृद्धि हुई उसका, कम-से-कम, पूर्वाभास मिलता है। हमें अपनी इस प्राकृत अवस्था के परे, जिस अहंभावापन्न सत्ता में हम रहते हैं उसके पीछे छिपी हुई, जिस सत्ता की प्रथम-अनुभूति होती है वह सत्ता गीता के मत में भी वही महान् निरहं अक्षर अचल ब्रह्म-सत्ता है जिसकी समता और एकता के अंदर हमारा क्षुद्रअहंकारगत व्यष्टिभाव लीन हो जाता है और उसकी प्रशांत पवित्रता के अंदर हमारी सब क्षुद्र कामना-वासनाएं छूट जाती हैं। परंतु इसके बाद जो पूर्णतर अनुभति होती है उसमें हमारे सामने वे अनंत भगवान् सशक्त रूप से प्रकट होते हैं जिनकी सत्ता अपरिमेय है, हम-पुरुष, प्रकृति, जगत् और ब्रह्म सभी-जो कुछ भी हैं उन्हीं से निकले हैं और उन्हीं के हैं।
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